Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 2
Author(s): G C Chaudhary
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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सिद्ध साहित्य का मूल स्रोत
137 केलि करने को विकल हैं; महासुख की सेज पर महासुख रूपी कपूर खाने को पागल है।' इस गीत में चाहे जो भी आध्यात्मिक भाव निहित हो पर शारीरिक संबंध की गंध प्रकट हो ही जाती है। कृष्णपाद बाजे-गाजे और पूरी सज-धज के साथ डोंवी को व्याहने के लिए चलते हैं। वे डोंबा का साथ क्षण भर के लिए नहीं छोड़ना चाहते ।२ कृष्णवज्रपाद डोंवी के लिए न केवल सब कुछ करने को तैयार हैं वरन् उस के लिए ये पूरे कापालिक बन जाते हैं ।३ काह्नपाद उस डोंबी को संग करने के लिए बुलाते हैं जो नगर के बाहर अपनी कुटिया बनाकर रहती है और जिसे ब्राह्मण का लड़का -छूकर भाग जाता है। किन्तु वह डोंबी कोई साधारण स्त्री न होकर महाप्रज्ञा है जो चौंसठ दल वाले कमल पर नाचती है ।" गुंडरीपाद अपनी योगिनी के बिना क्षण भर भी जीवित नहीं रह सकते। वे उसका मुख चूमकर कमलरस पीना चाहते हैं। पर यह योगिनी कोई सामान्य योगिनी नहीं है और न ही उसके साथ केलि करने पर कोई साधारण आनन्द मिलता है। वह अनुपम और अनुत्तर आनन्द देती है। वह वहाँ रहती है जहाँ सूर्य और चंद्र पंखा झलते हैं तथा सास को मार कर उसे प्राप्त किया जा सकता है। अतः यद्यपि सिद्धों ने खाने-पीने और केलि करने का उपदेश दिया है तथापि उनका उद्देश्य किसी साधारण स्त्री के साथ कामक्रीड़ा करना नहीं था। यह सही है कि प्रायः प्रत्येक सिद्ध ने किसी न किसी स्त्री को महामुद्रा के रूप में अपनाया था पर वह उसकी आध्यात्मिक साधना में हाथ बँटाती थी। सिद्ध और उनको महामुद्रा मानो महाप्रज्ञा और उपाय की सांसारिक अभिव्यक्ति मात्र हों। जो परमपद ध्यान से परे हैं उसकी प्राप्ति के लिए ध्यान करने से क्या लाभ ? जो अवाच्य है उसका वर्णन नहीं हो सकता। सारा संसार भवसमुद्र में बहा जा रहा है मगर अपने सहज स्वभाव को वही नहीं पहचानता।'
इस प्रकार हमने देखा कि मुनि रामसिंह ने प्रेमी और प्रेयसी के जिस रूपक का आदर्श प्रस्तुत किया उसका अनुसरण और अनुकरण सिद्ध साहित्य में किया गया । यद्यपि कहीं-कहीं सिद्धों का प्रेम निवेदन लौकिक प्रणय निवेदन की
१. चर्या गीतिकोष-२८, पृ० ९२. २. वही–१९--पृ०-६४. ३. वही-१८--पृ०-६१. ४. वही-१०-पृ० -३३. ५. वही-१०--पृ० -३३. ६. जोइनि तँइ बिनु सहिं न जीवमि । तो मुह चुम्बी कमलरस पीवमि ॥
सासु घरे घालि कोंचाताल चान्द सुज्ज वेणि पंखा पाल ॥
-चर्या गीतिकोष-४-पृ० १२ ७. दोहाकोश-सं० राहुल सांकृत्यायन-४८-पृ०-१२ ८. वही-४२-पृ०-१०
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