Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 2
Author(s): G C Chaudhary
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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सिद्ध साहित्य का मूल स्रोत
131 चाहे और मान (अहंकार) भी रखना चाहे तो नहीं हो सकता, क्योंकि एक म्यान में दो तलवारें रखी गई हों, ऐसा न तो किसी ने देखा और न सुना है।' ईश्वर प्रेम में द्वैत की भावना के लिए कोई स्थान नहीं है। जब तक अद्वैत की भावना उत्पन्न नहीं होती तब तक गुरु के साथ साधक का ऐक्य नहीं हो पाता। सच तो यह है कि प्रेम की गली इतनी सँकरी है कि उसमें दो नहीं समा सकते ।।
वज्रयानी सिद्धों और कबीर आदि सन्तों को हाथी का रूपक बड़ा प्रिय है। बार-बार वे मन को हाथी का रूपक देकर साधक को उपदेश देते हैं कि वह उस हाथी को संयम के अंकुश से वश में कर ले। यदि उसे वश में न किया गया तो साधना के जंगल को वह ध्वस्त कर देगा और तब साधक पछताता रह जायगा। किन्तु यदि ध्यानपूर्वक विचार किया जाय तो स्पष्ट हो जायगा कि सिद्धों और सन्तों को इस रूपक की प्रेरणा भी मुनि रामसिंह आदि जैन आचार्यों से मिली। रामसिंह कहते हैं कि अहो! इस मनरूपी हाथी को विंध्य पर्वत की ओर जाने से रोको। वह शीलरूपी वन को भंग कर देगा और फिर संसार में पड़ेगा। पुनः उन्होंने कहा कि तप का दामन तथा शम और दम का पालना बनाया। इस प्रकार संयमरूपी गृह से उन्मद हुआ करहा (हाथी) निर्वाण को गया। मन रूपी करभ को सम्बोधित करते हुए वे कहते हैं कि तू इन्द्रिय विषयों के सुख से रति मत कर । जिनसे निरन्तर सुख से नहीं मिल सकता उन सवको क्षणमात्र में छोड़ ।' साधक को रामसिंह कहते हैं कि शीघ्र लक्ष्य देकर आज तुझे उस करभ को जीतना चाहिये जिस पर चढ़कर परममुनि सव गमनागमन से मुक्त हो जाते हैं। साथ ही मनरूपी करभ को भी उनका अादेश है कि-हे करभ ! जव तक तू विषय भव संसार की गति का उच्छेदन न कर डाले तव तक जिनगुणरूपी स्थली में चर। तेरा पैगाम छोड़ दिया है।" रामसिंह के पूर्ववर्ती आवार्य देवसेन ने भी मनरूपी हाथी को गुरुवचन-रूपी अंकुश से खींच कर वश में करने का उपदेश दिया है जिससे यह हाथी संयम
१. कबीर-वचनावली-११४-१० १०४. २. जब मैं था तब गुरू नहीं अब गुरू हैं हम नाहिं ।
प्रेम गली अति साँकरी तामैं दो न समाहिं ॥
-कबीर-वचनावली-१०६-पृ० १०३. ३. अम्मिय इहु मणु हथिया विंझह जंतउ वारि ।
तं भंजेसइ सीलवणु पुणु पडिसइ संसारि ॥
-पाहुड़ दोहा-१५५ - पृ० ४६. ४. वही-११३-पृ० ३४. .. ५. वही-९२ - पृ०२८.
६. वही-१११-पृ०३४. ७. वही-११२-पृ०३४.
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