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सिद्ध साहित्य का मूल स्रोत
129 को पढ़ते-पढ़ते साधक क्षीण हो गए किन्तु उन्होंने वह परमकला न जानी कि यह जीव कहाँ उगा और कहा विलीन हुआ।' कबीर ने भी तो उस संसार को धिक्कारा है । जहाँ लोग पोथी पढ़ते-पढ़ते हार जाते हैं मगर पंडित नहीं हो पाते (वास्तविक ज्ञान नहीं मिलता है)। इससे तो कहीं अच्छा है कि प्रेम का एक अक्षर पढ़ा जाय जिससे ज्ञान की आँखें खुल जायँ । २ पोथी पढ़ने से मोक्ष कहाँ मिलता है ? इसके लिए चित्त को निष्कलंक रखना होगा। यों तो वध करनेवाला शिकारी भी नीचे खड़ा होकर हिरण के सामने झुकता है। मगर क्या उसका हृदय पवित्र है ?3 पढ़नेवाले ने तो इतना पढ़ लिया कि उसका ताल सूख गया पर फिर भी वह मूर्ख ही रहा। इससे तो कहीं अच्छा है कि वह उस एक अक्षर को पढ़े जिससे शिवपुरी का गमन हो। जब भीतरो चित्त मैला है तब बाहर तप करने से क्या लाभ ? चित्त में उस विचित्र निरंजन को धारण करना चाहिये जिससे मैल से मुक्ति मिले ।" कवीर ने भी मैले मन की ओर संकेत करते हुए कहा है कि संतों! मन बड़ा जालिम है। यह मन लोगों को तरह-तरह से नचाता फिरता है । निर्गुण-सगुण तथा चौदह लोकों का फेरा मन के कारण हो है। अतः सबके ऊपर जो परमतत्त्व है उसी में मन को लगाना चाहिए । रामसिंह के विचार का अनुसरण करते हुए कबीर कहते हैं कि संत ईश्वर का नाम भजे, लेकिन अपने मन को वश में रखे । यदि यह नहीं हुआ तो करोड़ों ग्रन्थों को पढ़-पढ़कर मर जाने से क्या लाभ ? रामसिंह कहते हैं कि वास्तविक ज्ञान मिल जाने पर साधक जिधर नजर दौड़ाता है उधर परमतत्त्व ही दिखाई देता है। अव उसे किसी से पूछना नहीं है क्योंकि उसकी भ्रांति मिट गई है। आगे चलकर कबीर ने भी इसी विचार सरणी का अनुसरण करते हुए कहा कि मैं परमात्मा की लाली देखने के लिए चली तो जिस किसी तरफ मेरी दृष्टि गई उसी की लाली दीख पड़ी। और इस क्रम में जव स्वयं अपने भीतर मैंने देखा तो पाया कि मैं स्वयं उस लाली में रंग कर लाल हो गई हूँ अर्थात् मैं स्वयं परमात्मा का एक अंग हूँ। अपने विचार
१. वही--२७३, पृ० ५२. २. कबीर-वचनावली-४७४, पृ० १३४. ३. पाहुड़ दोहा-१४६-,-४४. ४. वही-९७-,-३०. ५. वही-६१-,-१८. ६. कबीर-वचनावली-५९-,-१९६. ७. वही-४६७-,,-१३३. ८. अग्गई पच्छई दहदिहहिं जहिं जोवउं तहिं सोइ ।
तामहु फिट्टिय भंतडी अवसु ण पुच्छइ कोइ । -पाहुड़ दोहा० -१७५, पृ० ५२. लाली मेरे लाल की जित देखौं तित लाल । लाली देखन मैं गई मैं भी हो गई लाल ||
-कबीर-वचनावली-४८-पृ०९८.
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