Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 2
Author(s): G C Chaudhary
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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मूलाचार में प्रतिपादित मुनि आहार चर्या
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४. प्रशन संकल्प :- आज चावल, सक्तु आदि प्रकार विशेष का आहार मिलेगा तो ग्रहण करूँगा, अन्यथा नहीं ।
इस तरह इनमें से एक या कुछ संकल्प लेकर ही मुनि बायें हाथ में पिच्छी, कमण्डलु लेकर तथा दाहिने हाथ को दक्षिण कन्धे पर पंचांगुलिमुकुलित पाणि रखकर निकलते हैं । नगर या गाँव में पहुँचकर वे अपना आगमन सूचित करने के लिए अस्पष्ट बोलकर संकेत नहीं करते और न कभी वे याचना ही करते हैं । अपितु केवल बिजली की चमक के सदृश अपना शरीर दिखा देना ही पर्याप्त है । यदि श्रावक पड़गाहें तथा संकल्पानुसार विधि मिल जाए, तो परोपरोध रहित घर में आने-जाने का मार्ग छोड़कर श्रावकों द्वारा प्रार्थना करने पर वहीं खड़े हो, जहाँ से कि दूसरे साधु भी खड़े होकर भिक्षा प्राप्त करते हैं । खड़े होने का स्थान समान और छिद्र रहित देखकर अपने दोनों पैरों में चार अंगुल का अन्तर रखकर निश्चल रखे रहें । जिस श्रावक के यहाँ मुनि को आहारविधि मिलती है, वे पिच्छि और कमण्डलु को वामहस्त में एक साथ धारण करते हैं और दक्षिण कन्धे पर पंचांगुलि मुकुलित दाहिना हाथ रखकर आहार स्वीकृति व्यक्त करते हैं । ' श्रावक जब देखता है कि मुनिराज के संकल्पानुसार आहार-विधि हमारे यहाँ मिल गई है, तब वहीं खड़े मुनिराज की तीन बार परिक्रमा करता है, ततः मनशुद्धि, वचनशुद्धि, कायशुद्धि, आहारशुद्धि को मुनिराज के समक्ष कहकर उन्हें भोजनशाला में प्रवेश के लिए प्रार्थना करता है । तब मुनि चारों ओर सावधानीपूर्वक चौके में प्रवेश करते हैं । सचित्त, गन्दे तंग व अन्धकार युक्त प्रदेश में प्रवेश नहीं करते, अन्यथा संयम की विराधना की आशंका रहती है । चौके में मुनि को अपने चरण की भूमि, जूठन पड़ने की भूमि और आहार दाता के खड़े होने की भूमि - इन तीन भूमियों की शुद्धि का विशेष ध्यान रखना चाहिए ।
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आहार- दाता गुण
दाता के सात गुण माने जाते हैं । भक्ति, श्रद्धा, शक्ति, विज्ञान, अक्षुब्धता, क्षमा तथा त्याग | जो इन सात गुणों से युक्त निदानादि दोषों से रहित होकर सुपात्र को दान देता है वह मोक्ष प्राप्त करने के लिए तत्पर होता है । सागार - धर्मामृत में भी कहा है : भक्ति, श्रद्धा, सत्त्व, तुष्टि, ज्ञान, अलोल्य और क्षमा इन गुणों से युक्त, मन, वचन काय और कृत, कारित तथा अनुमोदना इन नौ कोटियों के द्वारा विशुद्ध दान का स्वामी दाता होता है । अतः पात्र में ईर्ष्या न होना, त्याग में विषाद न होना, देने की इच्छा करनेवाले में तथा देनेवालों
१. पिच्छं कमण्डलु वामहस्ते स्कन्धे तु दक्षिणम् ।
हस्तं निधाय संदृष्ट्या स व्रजेत् श्रावकालयम् ॥ - धर्म रसिक.
महापुराण, २०, ८२ एवं ८५.
२.
३. सागरधर्मामृत, ५.४७.
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