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VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 2
इससे यह ज्ञात होता है कि व्याख्या प्रज्ञप्ति शेष अठारह अनुयोगद्वारों से सम्बद्ध ग्रन्थ था और षट्खण्डागम में उन अठारह अनुयोगद्वारों की कोई चर्चा नहीं थी । इसीसे वप्पदेव ने महाबन्ध को पृथक् करके उसके स्थान में छठे खण्ड के रूप में व्याख्याप्रज्ञप्ति को मिला दिया और उसी के आधार पर वीरसेन स्वामी ने सत्कर्म की रचना करके उसे छठे खण्ड के रूप में मिला दिया । इससे यह भी प्रकट होता है कि व्याख्याप्रज्ञप्ति का विषय बहुत दुरूह होना चाहिये । इसी से उसके स्थान में उसी के आधार पर सत्कर्म नामक छठे खण्ड की रचना की गई ।
अब देखना चाहिये कि इन्द्रनन्दि का उक्त कथन कहाँ तक सत्य है । पाँचवें वर्गणा खण्ड का अन्तिम सूत्र इस प्रकार है :
'जं तं बंध विहाणं तं चउव्विहं पयडिवंधो द्विदिवंधो अणुभागवंधो पदेस - वंधो चेदि ।'
इसकी धवला टीका में वीरसेन स्वामी ने लिखा है कि इन चारों बन्धों का विधान भूतवलि भट्टारक ने महाबन्ध में विस्तार से लिखा है इसलिये हमने यहाँ नहीं लिखा । अतः समस्त महाबन्ध का यहाँ कथन करने पर बन्ध विधान
समाप्त होता है ।
इसके बाद वीरसेन स्वामी ने निवन्धन आदि अठारह अनुयोगद्वार लिखे हैं । उन्हें प्रारम्भ करते हुए लिखा है यतः भूतवली भट्टारक ने उक्त सूत्र देशामर्षक रूप से लिखा है अतः उक्त सूत्र से सूचित अठारह अनुयोगद्वारों की किञ्चित् संक्षेप से प्ररूपणा करते हैं ।
ये अनुयोग द्वार प्रकाशित षट् खण्डागम के १५ और १६ वीं पुस्तकों में मुद्रित हैं । पन्द्रहवीं पुस्तक में केवल चार अनुयोगद्वार हैं और उनके बाद उसी पुस्तक में परिशिष्ट रूप से 'सन्तकम्मपंजिया' अर्थात् सत्कर्मपंजिका मुद्रित है ।
यह पंजिका भी केवल चार ही अनुयोगद्वारों पर है। इसके प्रारम्भ में लिखा है
'महाकम्पयडिपाहुडस्स कदि वेदणाओ (इ) उब्वीसमणिश्रोगद्दारेसु तत्थ कदि वेदणात्ति जाणि अणियोगद्दाराणि वेदणाखंडम्मि, पुणो प [पस्सकम्म-पडि-बंधणात्ति ] चत्तारि अणिओगद्दारेसु तत्थ बंध-बंधणिज्जणामाणियोगेहि सह वग्गणाखंडम्मि, पुणो बंधविधाणणामाणियोगद्दारो महाबंधम्मि, पुणो बंधग्गाणि ओोगो खुद्दाबंधम्मि च सप्पवंचेण परूविदाणि । पुणो तेहिंतो सेसद्वारसाणियोगद्दाराणि संतकम्मे सव्वाणि परुविदाणि ।'
अर्थात् महाकर्मप्रकृतिप्राभृत के कृति वेदना आदि चौवीस प्रतियोगद्वारों में से कृति और वेदना अनुयोगद्वारों का वेदना खण्ड में, स्पर्श कर्मप्रकृति
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