Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 2
Author(s): G C Chaudhary
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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मूलाचार में प्रतिपादित मुनि-आहार चर्या
105 फिर भी कुछ ऐसे स्थान हैं जहाँ श्रमणों को आहार लेने से श्रमणपने में क्षीणता आती है।' जैसे राजा का निवास स्थान, गृहपति का निवास स्थान, गुप्तचरों के मंत्रणास्थल, तथा वेश्याओं के निवास स्थान का सम्पूर्ण समीपवर्ती क्षेत्र । इन स्थानों पर आहार करने से लोकापवाद के अलावा गुप्तचरों से पकड़े जाने आदि तथा आत्मनिन्दा के प्रसंग आते हैं। भगवती अराधना में कहा है। जहाँ या जिस घर में मनुष्य किसी कार्य में तत्पर हों, उनका मुख दीनतायुक्त दिखे या खिन्न हो तो मुनि के लिए वहाँ ठहरना निषिद्ध है। शोकयुक्त घर में, विवाह व यज्ञशाला, उद्यान, मण्डपादि में, बहुजन संसक्त तथा पशुओं से युक्त प्रदेश में प्रवेश निषिद्ध है। अतिसय दरिद्री तथा प्राचार विरुद्ध श्रीमन्तों के घर का त्याग कर बड़े-छोटे एवं मध्यम गृहों में प्रवेश करें। राजवातिक में तो यहाँ तक कह दिया है कि दीन-अनाथों के घर का त्याग करना तथा दीनवृत्ति से रहित होकर प्रासुक-आहार खोजना भिक्षाशुद्धि है। मुनियों को आहार त्याग के छः प्रसङ्ग :
मुनियों के आहार-ग्रहण का उद्देश्य अपने प्राचार धर्म का अच्छी तरह पालन है। किन्तु यदि उसी आचार धर्म में आहार के कारण बाधा उपस्थित होने की आशंका हो तो उन्हें आहार का त्याग कर देना चाहिए। मुनियों के जीवन में प्रायः छ: ऐसे प्रसङ्ग आ सकते हैं, जिसमें उन्हें आहार-ग्रहण वजित माना है :
१. आतंक अर्थात् भयंकर रोग उत्पन्न होने पर या आकस्मिक व्याधि
के समय। २. उपसर्ग अर्थात् आकस्मिक संकट पाने पर। ३. ब्रह्मचर्य अर्थात् शील की रक्षा के लिए । ४. प्राणिदया अर्थात् जीवरक्षार्थ । ५. तप के लिए। ६. सल्लेखना या शरीर-परिहार के लिए।
आहार त्याग के उपरोक्त छः कारणों को देखने से लगता है जैन आचार दर्शन में मुनि का आहार ग्रहण और आहार त्याग दोनों के पोछे संयमात्मक जीवन की रक्षा ही है । क्योंकि मुनि संयम के पालनार्थ ही आहार ग्रहण करते हैं और उसी के लिए याहार का त्याग भी करते हैं।
१. दशवैकालिक ५.१.९.१६ २. भगवती आराधना १२०६. ३. राजवार्तिक ९.६ ४. मूलाचार, ६.६१ तथा उत्तराध्ययन २६.३५
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