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108 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 2 में या जिसने दान दिया है सबमें प्रीति होना, कुशल अभिप्राय, प्रत्यक्ष फल की आकांक्षा न करना, निदान नहीं करना, किसी से विसंवाद नहीं करना आदि दाता की विशेषताएँ हैं।'
खड़े होकर हस्तपात्र में आहार-ग्रहण का विधानः
मुनियों के अट्ठाईस मूलगुणों में सत्ताईसवाँ मूलगुण स्थिति भोजन है। अनगारधर्मामृत में इस विषय में कहा है, "जब तक खड़े होकर अपने हाथ को ही पात्र बनाकर उन्हीं के द्वारा भोजन ग्रहण की सामर्थ्य रखता हूँ, तभी तक भोजन करने में प्रवृत्ति करूँगा, अन्यथा नहीं।” मुनि की इस प्रतिज्ञा के निर्वहणार्थ इन्द्रियसंयम और प्राणिसंयम साधन के लिए मुनियों को खड़े होकर आहार लेने का विधान किया है। अतः अपने हस्तरूपी पात्र (करपुट) बनाकर दीवार आदि के आश्रय रहित चार अंगुल के अन्तर में समपाद खड़े रहकर तीन प्रकार की भूमियों की शुद्धता का ध्यान रखना-स्थिति भोजन मूलगुण है।
जो साधक श्रमण अपने उपयोग के लिए कोई भी पात्र नहीं रखते अपितु आहारादि का ग्रहण अपने हाथों में ही रख कर करते हैं ऐसे श्रमण "करपात्री" कहे जाते हैं। पात्र त्याग से जहाँ उनके अधिक से अधिक परिग्रह का त्याग होता है, वहीं प्राणातिपातविरमण व्रत की भी रक्षा होती है। क्योंकि पात्रों के अभाव में सूक्ष्म जीवों की हिंसा की सम्भावना नहीं रह जाती। अतः अशन, पान, खाद्य, भोज्य, लेह्य, पेय इत्यादि पदार्थों का अच्छी तरह शोधन करते हुए, शुद्ध रूप से हस्तपात्र में मूनि भोजन करे।" जो आहार अविवर्ण, प्रशस्त और एषणा समिति से विशुद्ध हो उसे मुनि भोजन बेला में प्राप्त करके पाणिपात्र में ग्रहण करे ।।
मौनपूर्वक आहार-ग्रहण का विधान :
__ श्रमण आहार-प्राप्ति के लिए न दाता की स्तुति करते हैं और न उनसे कुछ याचना ही करते हैं । अपितु मौनपूर्वक आहाराथ भ्रमण करते हैं। वे ताली बजाने आदि अनेक तरह की चेष्टाओं से अपना अभिप्राय भी व्यक्त नहीं करते । "मुझे भिक्षा दो" इस तरह की दीन, कलुष, वचन बोलने की इच्छा से रहित होकर, नष्ट किये बिना-भिक्षालाभ या अलाभ दोनों अवस्थाओं में अपनी वसतिका लौट आते हैं । अर्थात् भिक्षा-प्राप्ति होने पर वे खुश तथा अप्राप्ति में
१. राजवार्तिक ७.३९. २. अनगारधर्मामृत, ६. ६३. ३. मूलाचार, १.३४. ४. आगम साहित्य में जैन आचार, शोध प्रबन्ध पृष्ठ, २८७, २८८. ५. मूलचार, ९.५४. ६. वही, ९.५५.
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