Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 2
Author(s): G C Chaudhary
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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मूलाचार में प्रतिपादित मुनि-आहार-चर्या
111 श्रमणों के विशद्ध आहार प्रसंग में कहा है "मन, वचन, काय, कृत, कारित, अनुमोदनादि नव कोटियों से शुद्ध, शंकाकांक्षादि दश दोषों से रहित, नखरोमादि चौदह मलों से रहित, हस्तरूपी पात्र (करपुट) में श्रावक द्वारा दिया गया पाहार ही ग्रहण करें। शुद्ध, जन्तुओं से रहित, खाद्य, भोज्य, लेह्य तथा पेय इन आहारों में जो शास्त्र विरुद्ध नहीं है ऐसा बीज रहित, मध्य (सार) भाग रहित, प्रासुक किया हुअा आहार मुनि के ग्रहण योग्य है। जो कि अच्छे दाता द्वारा दिया गया हो उसे शरीर के योग्य, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और प्रमाणानुसार आकांक्षा रहित भाव से रत्नत्रय के पालन एवं क्षुधा शमन के उद्देश्य से मुनि को आहार ग्रहण करना चाहिए। मुनि को त्याज्य आहार :
अधःकर्म युक्त अर्थात् जिन कार्यों के करने से जीवहिंसा होती है ऐसे प्रत्येक पदार्थ का मुनि त्याग करते हैं। क्योंकि पृश्वीकाय आदि छः कायों के जीवों को दुःख देना, मारना इससे उत्पन्न आहारादि वस्तु अधःकर्म है। अतः फल, कंद, मूल, वीज, बिना अग्नि में पकाये एवं अन्य निषिद्ध वस्तुओं की मुनि को इच्छा तक नहीं करनी चाहिए । जो आहार दो तीन दिन का विवर्ण, जीवजन्तुओं से युक्त हो या जिस आहार में नीले, काले रंग से (पुष्पित) फफूड़ लग गया हो, क्लिन्न (वासी या सड़ा) एवं पापड़ादि अप्रासुक अाहार को त्याज्य समझते हैं तथा ऐसा आहार प्राप्त होने पर उसका त्याग करते हैं। एवं शुद्ध, जन्तुओं से रहित, खाद्य, भोज्य, लेह्य या पेय इनमें जो शास्त्र विरुद्ध नहीं हैं ऐसे प्रासुक आहार को मुनिराज ग्रहण करते हैं। यदि प्रासुक आहार के विषय में भी मुनि सोचते हैं कि यह आहार आत्मार्थ (मेरे निमित्त) बनाया गया है तो भी भावतः वह आहार अप्रासुक ही है। क्योंकि मुनि भोजन न स्वयं पकाते हैं और न दूसरों से पकाने को कहते हैं, क्योंकि भोजन निर्माण में होनेवाले प्रारम्भ से तो वे सदा निवृत्त रहते हैं। प्रौद्देशिक, क्रीत, शंकित और अभिघट अन्न जो कि आगम निषिद्ध तथा प्रतिकूल है। अन्य स्थान से आये हुए आहार को मुनिजन त्याज्य समझते हैं। यहाँ यह भी जान लेना चाहिए कि अभिघट दोष के देशाभिघट और सर्वाभिघट इन दो भेदों में प्रथम भेद के भी दो भेद हैं। आचिन्न तथा अनाचिन्न । इनमें पंक्तिबद्ध सीधे तीन या सात घरों से लाया हुआ अन्न आचिन्न अर्थात् ग्रहण के योग्य है, तथा इससे विपरीत अर्थात् यत्रतत्र विना पंक्ति के किन्हीं भी सात घरों से या पंक्तिबद्ध आठवें घर का अन्न अनचिन्न अर्थात् ग्रहण के अयोग्य है। अतः कुत्सित दोषों से रहित, एषणा समिति से परिशुद्ध दश दोष और चौदह मलों से रहित, विशुद्ध आहार मुनिजनों को ग्रहण करना चाहिए।
१. मूलाचार, ९.४५. २. वही, ६.५. ३. वही, ६, १९, २०, २१.
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