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VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 2
१३. विद्या दोष :- विद्या सिद्ध करा देने का आश्वासन देकर ग्राहार लेना ।
मंत्र दोष :- मंत्र प्रयोगपूर्वक या उसे सिखा देने की आशा देकर आहार लेना ।
चूर्ण दोष : – नेत्र, सौन्दर्य आदि के लिए चूर्ण बताकर आहार ग्रहण करना । मूल कर्म :-वशीकरण, गर्भ-स्तंम्भनादि के मंत्र-तंत्र बताकर आहार लेना ।
ग्रहणरणा ( अशन) के दश दोष :
१. शंकित दोष : - अधः कर्मादि युक्त आहार की शंकापूर्वक आहार करते रहना ।
क्षित दोष : -- चिकने हाथ या पात्र से प्रहार देना ।
२.
३. निक्षिप्त दोष:- अप्रासुक सचित्त पृथ्वी आदि पर रखा श्राहार देना । ४. पिहित दोष:- सचित्त वस्तु से ढका श्राहार देना ।
५.
संव्यवहरण दोष : - शीघ्रतावश विना देखे-भाले प्रहार देना । ६. दायक दोष :- उन्मत्त, गर्भिणी, रोगी आदि द्वारा दिया प्रहार लेना ।
७. उन्मिश्र दोष -सचित्त प्रप्रासुक वस्तुओं से मिश्रित आहार लेना । ८. अपरिणत दोष : - अग्न्यादि से अपक्व जल, पान, आदि लेना ।
८. लिप्त दोष : गेरू, अपक्वतंदुलादि शाकादि से लिप्त पात्र या हाथ के द्वारा आहार देना ।
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१०.
छोटित ( त्यक्त) दोष - करपुट में ज्यादा ग्रन्न लेकर कुछ नीचे गिराते हुए या इष्ट पदार्थों को खाते हुए तथा अनिष्ट पदार्थों को गिराते हुए अथवा अंजुलि छोड़कर आहार ग्रहण करना ।
ग्रासैषरणा के संयोजनादि चार दोष :
१. संयोजन दोष :- प्रभीष्ट तथा विरुद्ध पदार्थों को परस्पर मिश्रित
करना ।
२. प्रमाण दोषः - मात्रा से अधिक भोजन करना ।
३. अङ्गार दोषः - आसक्तिपूर्वक अतितृष्णा से आहार करना । यह दोष चरित को जलाकर कोयला स्वरूप निस्तेज कर देता है अतः इसका नाम अङ्गार दोष पड़ा ।
४. धूमदोषः - नीरस या अपक्व आहार को ग्लानि या निन्दापूर्वक ग्रहण
करना ।
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