Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 2
Author(s): G C Chaudhary
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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जैन धर्म का उद्भव एवं विकास : एक ऐतिहासिक मूल्यांकन 95 व्यक्त आत्मा का तृतीय सिद्धान्त भी जैन दर्शन के आत्मा के स्वरूप से मिलता जुलता है।'
सूत्रकृतांग, भगवतीसूत्र आदि आगम ग्रन्थों में इन्हीं बीजों को कुछ और पुष्पित किया गया है। कुन्दकुन्द आचार्य के प्रवचनसार, समयसार आदि ग्रन्थों में उसे और अधिक स्पष्टता मिल सकी है। पश्चात् उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र में उक्त तत्त्वों को सुव्यवस्थित कर दिया। उत्तरवर्ती आचार्यों ने उमास्वामी के विभाजन का ही अनुकरण किया।
जैन कर्म के विषय में पाली साहित्य में त्रिदण्डकर्म का उल्लेख मिलता है। वहाँ कर्म के भेद-प्रभेद का कोई उल्लेख नहीं सम्भव है, पार्श्वनाथ और महावीर के समय तक कर्म के भेद प्रभेदों का निर्धारण नहीं हुआ हो । बाद में आगम ग्रन्थों में उनके भेद-प्रभेद मिलने लगते हैं। प्राचार्य पुष्पदन्त और भूतवलि ने कर्मों का और भी अधिक विश्लेषण किया। उसी के आधार पर उमास्वामी ने भी कर्मों का वर्गीकरण किया है। उमास्वामी के बाद कर्म की व्याख्या आदि में विशेष अन्तर नहीं आया। शेष तत्त्वों की भी लगभग यही स्थिति रही। अनेकान्तवाद :
अनेकान्तवाद सिद्धान्त भी विकास के अनेक सोपानों को पार करने के बाद वर्तमान रूप में स्थिर हुआ है। पालि त्रिपिटक में बुद्ध निगण्ठनाथ पुत्त के शिष्य सच्चक के बीच हुए संवाद से तत्कालीन प्रचलित अनेकान्तवाद का प्राथमिक रूप हमारे सामने आता है। उसमें बुद्ध ने सच्चक पर परस्पर विरोध कथन का दोषारोपण किया है। इसी प्रकार निगण्ठनाथ पुत्र और बुद्ध के शिष्य चित्तगहपति के बीच हुअा संवाद भी उसी दोषारोपण को दुहराता है। मज्झिमनिकाय में दीघनख-परिवाजक का उल्लेख मिलता है जो महावीरकालीन स्याद्वाद के प्रकार पर प्रकाश डालता है। उसमें निम्नलिखित तीन अंग दर्शाये गये हैं :
१. सब्बं मे खमति । २. सब्बं मे न खमति । ३. एकच्चं मे खमति, एकच्चं मे न खमति ।
इन तीनों अंगों को हम क्रमशः स्यादस्ति, स्यान्नास्ति और स्यादस्तिनास्ति का रूप मान सकते हैं। संभव है इन्हीं विचारों का पल्लवन उत्तरकालीन प्रागम. ग्रन्थों में हुआ हो। सूत्रकृतांग में जैन भिक्षु के लिए विभज्यवादी होने का संकेत
१. दीघनिकाय १, पृ० १८६-७. २. तत्त्वार्थसूत्र. १.४ ३. मज्झिम. १, पृ० ३७२. ४. मज्झिमनिकाय १, पृ० ४९८.
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