Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 2
Author(s): G C Chaudhary
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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आचार्य कुन्दकुन्द और अद्वैतवाद णाणं सव्वे भावे पच्चक्खादि च परेत्ति णादण । तम्हा पच्चक्खाणं गाणं णियमा मुणेदव्वं ।।
-सम० ३४. आचार्य कुन्दकुन्द के इस अद्वैतवादी दर्शन के लिए इतना हो पर्याप्त नहीं था। वे तत्कालीन विज्ञानाद्वैत तथा आत्माद्वैतवादियों की उपेक्षा नहीं कर सकते थे। विज्ञानाद्वैत का सिद्धान्त है कि ज्ञान में ज्ञानातिरिक्त बाह्यपदार्थों का प्रतिभास नहीं होता, स्व का ही प्रतिभास होता है। ब्रह्मद्वैत भी ब्रह्मातिरिक्त कुक्ष नहीं स्वीकार करता । इस प्रकार उसके सभी प्रतिभासों में एक मात्र ब्रह्म ही प्रतिभासित होता है। यहाँ प्राचार्य कुन्दकुन्द ने मध्यम मार्ग का अवलम्बन लेकर तत्त्वों का प्रतिपादन इस प्रकार किया है कि निश्चय दष्टि से केवलज्ञानी आत्मा को ही जानता है, पर पदार्थों को नहीं :केवलणाणी जाणदि पस्सदि णियमेण अप्पाणं ।
-निय० १५६ इन उपर्युक्त प्रकार के सभी प्रतिपादनों के मूल में आचार्य कुन्दकुन्द का वह सिद्धान्त है, जिस में वे आत्मतत्त्व को ही स्वसमय और आत्मभिन्न सभी पौद्गलिक तत्त्वों को परसमय अर्थात् मिथ्या तत्त्व कह कर अलग कर देते हैं [सम० २] | वस्तुतः जव केवली अवस्था में जो तत्त्व ज्ञान का विषय नहीं हो सकता, वह मिथ्या नहीं तो और क्या हो सकता है ? इस प्रकार हम देखते हैं आचार्य कुन्दकुन्द जैन दर्शन को "ब्रह्मसत्यं जगन्मिथ्या, जीवो ब्रह्म व नापरः" के अद्वतवाद के समीप लाकर रख देते हैं।
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