________________
92 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 2
वास्तव में आचार्य कुन्दकुन्द जीव और ज्ञान में एकत्वभाव स्वीकार करते हैं। उनकी दृष्टि में जो ज्ञान है, वही जीव है । जो जीव है वही ज्ञान है, ज्ञान और ज्ञानी में वास्तविक अभेद है :
णाणं अप्पत्तिमदं बट्टदि णाणं विणा ण अप्पाणं । तम्हा णाणं अप्पा अप्पा णाणं व अण्णं वा ।।
-~-प्रव० १,२७. णहि सो समवायादो अत्थंतरिदो दु णाणदो णाणी । अण्णाणीति च वयणं एगत्तप्प साधगं होदि ।
-पंच० ४९. इसी तथ्य का प्राचार्य अन्यत्र इसी प्रकार प्रतिपादन करते हैं-"व्यवहारदष्टि से यद्यपि आत्मा और उसके ज्ञानादि गुणों में पारस्परिक भेद का प्रतिपादन किया जाता है, किन्तु निश्चयदष्टि से वे एक हैं, उनमें भेद नहीं। उनकी अद्वैतोन्मुखदष्टि ने सभी गुणों का एकत्वज्ञान गुण में कर दिया है। वे स्पष्टतया कहते हैं-"सम्पूर्ण ज्ञान ही एकान्तिक सुख है :
जादं सयं समत्तं णाणमणं तत्थ वित्थडं विमलं । रहियं तु ओग्गहादिहि सुहं ति एगंतियं भणियं ।।
-प्रव० ११५७. जं केवलं ति णाणं तं सोक्खं परिणमं च सो चेव । खेदो तस्स ण भणिदो जम्हा धादी खयं जादा ।।
-प्रव० ११६०. आचार्य इसी ज्ञान और जीव के एकत्व को आगे और सबल तर्क द्वारा प्रमाणित करते हैं। उनका कथन है कि आत्मा कर्ता हो, ज्ञान करण हो यह बात भी नही, किन्तु, "जो जाण जाणदि सो णाणं णहवदि णाणेण णाणगो आदा" अर्थात जो आत्मा जानता है, वह ज्ञान है। ज्ञान गुण के योग से आत्मा जानने वाला नहीं होता। अर्थात् आत्मा और ज्ञान अभिन्न हैं। फिर, आगे चलकर वे आत्मा को ही उपनिषद् की भाषा में परमार्थ वस्तु बताते हैं और उसके अवलम्बन को ही मोक्ष स्वीकारते हैं। सम्यग् दर्शन-ज्ञान-चारित्र तीनों को आचार्य एकात्मरूप ही मानते हैं :
दसण णाण चरित्ताणि सेविदत्वाणि साहणा णिच्चं । ताणि पुण जाण तिण्णिवि अप्पाणं चेव णिच्छयदो ।।
-सम० १६. मोत्तूण सयल जप्पमणा गय सुहमसुहवारणं किच्चा । अप्पाणं जो झायदि पच्चक्खाणं हवे तस्स ।।
--निय० ९५. वे आत्मा के अतिरिक्त सभी पदार्थों को पर स्वीकार करते हैं और उनके प्रत्याख्यान का विधान करते हैं तथा यह प्रत्याख्यान ही ज्ञान है :
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org