SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 94
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन न्याय पर अहिंसा का प्रभाव 85 अर्थात जैसे बीज के अंकुरों की रक्षा के लिए कटीली झाड़ियों की वाड़ लगाई जाती हैं वैसे ही तत्त्वज्ञान के निश्चय की रक्षा करने के लिए जल्प तथा वितण्डा कथा होती है। जल्प में ही छल जाति और निग्रहस्थानों का प्रयोग होता है। अर्थात् शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त करने के लिये छल का भी उपयोग किया जाता था। वक्ता के अभिप्राय से भिन्न अर्थ का उपपादन करके वक्ता की बात को काट देना छल है। जैसे 'नवकम्बल देवदत्त' ऐसा कहने पर नव के संख्यावाची नौ और नया ये दो अर्थ होने से वक्ता के अभिप्राय से भिन्न अर्थ को लेकर उसकी बात काटना छल है और असत्य उत्तर को जाति कहते हैं। इस तरह के शास्त्रों का प्रयोग भी शास्त्रार्थों में होता था । अहिंसा के अनुयायी जैन नैयायिकों से न्याय में यह अन्याय नहीं देखा गया। बौद्ध नैयायिक धर्मकीति और जैन नैयायिक अकलंक ने एक स्वर से इसका विरोध किया। न्याय सूत्रकार के मत से वितराग कथा को वाद और विजिगीषु कथा को जल्प और वितण्डा कहते हैं। किन्तु अकलंकदेव ने जल्प और वाद में अन्तर न मानकर वाद को भो विजिगीषु कथा में ही मान्य किया, क्योंकि गुरु-शिष्य की वीतराग कथा को कोई वाद नहीं कहता। दो वादियों के मध्य में जब किसी विवाद को लेकर पक्ष प्रतिपक्ष परिग्रहपूर्वक चर्चा छिड़ती है तभी वाद शब्द का प्रयोग किया जाता है। जल्प और वाद को एक मान लेने से एक वितण्डा शेष रहता है। वितण्डा में वादी-प्रतिवादी अपने-अपने पक्ष का समर्थन न करके केवल प्रतिवादी का खण्डन करने में ही व्यस्त रहते हैं । अतः अकलंक ने इसे वादाभास कहा, क्योंकि वाद वही है जिसमें स्वपक्ष-स्थापनपूर्वक परपक्ष का निराकरण किया जाता है। वाद में सबसे मुख्य प्रश्न जय-पराजय-व्यवस्था का रहना है। प्रतिपक्षी को निगृहीत करने के लिये न्यायदर्शन में वाईस निग्रहस्थान माने गये हैं। धर्मकीति ने वादी और प्रतिवादी के लिये एक-एक निग्रहस्थान माना है। यदि वादी अपने पक्ष की सिद्धि करते हुए किसी ऐसे अंग का प्रयोग कर जाये जो असाधनाङ्ग माना गया है या साधनाङ्ग को न कहे तो वह निगृहीत हो जाता है। इसी प्रकार वादी के अनुमान में दूषण देते हुए यदि प्रतिवादो किसी दोष का उद्भावन न करे या अदोष का उद्भावन करे तो वह निगृहीत कर दिया जाता है। अकलंक ने धर्मकोति के इस निग्रह को अनुचित बतलाया । वे कहते हैं-वाद का उद्देश्य तत्त्वनिर्णय है । यदि वादी अपने पक्ष का साधन करते हुए कुछ अधिक कह जाता है या प्रतिवादी अपने पक्ष की सिद्धि करके वादी के किसी दोष का उद्भावन नहीं करता तो वे दोनों इतने मात्र से निगृहीत नहीं किये जा सकते। कहावत प्रसिद्ध है-'स्वसाध्यं प्रसाध्य नृत्यतोऽपि दोषाभावात् ।' अपना कार्य करके नाचे भी तो कोई दोष नहीं है। प्रमाण के बल से प्रतिपक्षी के अभिप्राय को निवत्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522602
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG C Chaudhary
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1974
Total Pages342
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy