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________________ 84 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 2 करता है। ज्ञाता का यह अभिप्राय नय कहा जाता है। अतः वचन के जितने मार्ग हैं उतने ही नय हैं और जितने नय हैं उतने ही परसभय है । कहा है जावइया वयणपहा तावइया चेव होंति णयवादा। जावइया णयवादा तावइया चेव होति परसमया ।। पर समयाणं वयणं मिच्छं खलु होइ सव्वहा वयणा । जेणाणं पुण वयणं सम्म खु कहंचि वयणादो। -गो० कर्म० ८९४-८६५. परसमय अर्थात अन्य दर्शन इसलिये मिथ्या है कि वे अपने एकांगी दष्टिकोण को ही सत्य मान बैठे हैं और जैन दर्शन कथंचित या अपेक्षा विशेष से ही प्रत्येक धर्म को स्वीकार करता है इसलिए वह अपनी सत्यता का दावा करता है। इस तरह जैन दर्शन मिथ्या कहे जाने वाले विभिन्न दर्शनों का ही तो समूह है। आचार्य सिद्धसेन ने अपनी सन्मतितर्क का उपसंहार करते हुए कहा है: भई मिच्छादसणसमूहमइयस्स अभयसारस्स । जिणवयणस्स भगवग्रो संविग्गसुहाहिगम्मस्स ।। अर्थात् मिथ्या दर्शनों के समूह रूप जिन वचन का कल्याण हो, यदि जैन दर्शन मिथ्या दर्शनों का समूह है तब तो वह महामिथ्या हुना । इसका परिहार करते हुए समन्तभद्र ने कहा है: मिथ्यासमूहो मिथ्या चेन्न मिथ्र्यकान्तताऽस्ति नः । निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वस्तु तेऽथंकृत् ।। -आप्तमीमांसा. मिथ्या दर्शनों का या मिथ्यानयों का समूह होने से जैन दर्शन मिथ्या नहीं है क्योंकि वह सबको सापेक्ष स्वीकार करता है। निरपेक्षनय ही मिथ्या होते हैं। सापेक्ष होने पर वे वस्तु हैं। __इस तरह अहिंसावादी जैन दर्शन ने विभिन्न दर्शनों का समन्वय करके दार्शनिक क्षेत्र की पारस्परिक कलह को अनेकान्तदृष्टि के द्वारा दूर करने का प्रयत्न किया। __ दार्शनिक क्षेत्र में एक समय शास्त्रार्थों को धूम थी। वादसभाओं में एकत्र होकर विभिन्न दर्शन वादी-प्रतिवादियों के रूप में जय-पराजय की व्यवस्था करते थे। इन शास्त्रार्थों में छल जाति और निग्रह स्थानों का बहुतायत से प्रयोग होता था। न्याय दर्शन में तो जिन सोलह पदार्थों के तत्त्वज्ञान से मोक्ष माना गया है उनमें छल जाति और निग्रहस्थान भी हैं । न्यायदर्शन में कहा है: तत्त्वाध्यवसायसंरक्षणार्थं जल्पं वितण्डे वीजप्ररोहसंरक्षणार्थ कण्टकशाखावरणवत्। ४।२।५०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522602
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG C Chaudhary
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1974
Total Pages342
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size7 MB
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