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जैन न्याय पर अहिंसा का प्रभाव
अनादिकाल से बिना किसी विरोध श्रादि के रहती आती है । किन्तु ये विश्व के दार्शनिक उस वस्तु के एक-एक धर्म को ही पूर्ण वस्तु मानकर परस्पर में सदा झगड़ते रहते हैं और इस तरह ये न स्वयं सुख-शान्ति से रहते हैं और न वेचारी वस्तु को रहने देते हैं । ये उसके एक-एक धर्म का पक्ष लेकर वस्तु के धर्मों में सदा बगावत पैदा करते रहते हैं । जब तक इनका शमन नहीं होता तब तक सुखशान्ति संभव नहीं । इस स्थिति को दृष्टि में रखकर अहिंसा के पुजारी जैन दर्शन के स्रष्टा ने अनेकान्तवाद के फलितवाद के रूप में दो अन्य वादों का सर्जन किया । वे हैं - नयवाद और सप्तभंगीवाद |
भारतीय दर्शनों में जैन दर्शन के अतिरिक्त अति प्रसिद्ध दर्शन हैं न्याय, वैशेषिक, सांख्य, वेदान्त, बौद्ध । इन्हें पूर्ण सत्य मानने में भी आपत्ति थी और सर्वथा असत्य कहने में भी सत्य का अपलाप था । फलतः इन्हें नयवाद में स्थान दिया गया । आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने अपने सन्मतितर्क में इनका नयों में अन्तर्भाव करते हुए लिखा है:--
जं काविलं दरिसणं एयं दव्वट्ठियस्स वत्तव्वं । सुद्धोअणतणयस्स उ परिसुद्धो पज्जववियप्पो || दोहिं वि एहिं णीयं सत्यमूलूएण तह विमिच्छत्तं । जं सविसअप्पहाणत्तणेण अण्णोणिरवेक्खा | !
नित्य और सत्कार्यवादी सांख्य दर्शन द्रव्यास्तिक नय का वक्तव्य है और बुद्ध का दर्शन तो शुद्ध पर्याय नय का विकल्प है । यद्यपि कणाद ने दोनों नयों से अपने दर्शन की प्ररूपणा की है फिर भी वह अप्रमाण है क्योंकि वे दोनों नय अपने-अपने विषय की प्रधानता के कारण एक दूसरे से निरपेक्ष हैं ।
आशय यह है कि वस्तु के एक अंश के ग्राही ज्ञान को नय कहते हैं । अतः वस्तु द्रव्यपर्यायात्मक है अतः नय के भी दो मूल भेद हैंद्रव्याथिक और पर्यायार्थिक या द्रव्यास्तिक और पर्यायास्तिक | द्रव्यार्थिक
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वस्तु को द्रव्यांश की मुख्यता से ग्रहण करता है और पर्यायार्थिक नय वस्तु को पर्यायांश की मुख्यता से ग्रहण करता है । यदि ये दोनों नय केवल अपने विषय को ही यथार्थ और दूसरे नय के विषय को अयथार्थ मानें तो ये दोनों नयाभास कहलाते हैं । और यदि अपने विषय को यथार्थ मानकर भी दूसरे नय के विषय में तटस्थ रहते हैं तब सच्चे हैं । इस दृष्टि से यदि नित्यवादी सांख्य क्षणिकवादी वौद्ध दर्शन को असत्य न कहें और क्षणिकवादी बौद्ध नित्यतावादी सांख्य को मिथ्या न कहे तो दोनों सत्य कहे जा सकते हैं । कणाद उभयवादी हैं किन्तु सापेक्ष उभयवादी नहीं है निरपेक्ष उभयवादी है । जो नित्य है वह नित्य ही है, जो अनित्य है वह अनित्य ही है यह निरपेक्ष मान्यता है । जो नित्य है वह एक दृष्टि से अनित्य भी है और जो अनित्य है वह एक दृष्टि से नित्य भी है, यह सापेक्षदृष्टि है । यही वास्तविक है । इस तरह नयवाद में विभिन्न दर्शनों का समन्वय करके दार्शनिक मारामारी को कम करने का प्रयत्न किया गया । जैन दृष्टि से प्रत्येक ज्ञाता अपने अभिप्राय के अनुसार वचन प्रयोग
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