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जैन न्याय पर अहिंसा का प्रभाव
पंडित कैलाशचन्द्र शास्त्री अहिंसा जैन आचार का तो प्राण है ही, जैन विचार-सरणि उससे अछूती कैसे रह सकती है। क्योंकि विचारों में अहिंसा का सूत्रपात हुए बिना आचार में उसका प्रवेश संभव नही है। जैन दर्शन का अनेकान्त सिद्धान्त एक तरह से विचार के क्षेत्र में चलने वाले द्वन्द्वों को ही समाप्त करने का एक अहिंसामूलक प्रयास है।
अनेकान्त सिद्धान्त के अनुसार वस्तु परस्पर में विरुद्ध प्रतीत होने वाले धर्मों का एक समन्वयात्मक रूप है और जड़ या चेतन कोई भी उससे अछता नहीं है। सत्-असत्, नित्य-अनित्य, एक-अनेक, द्वैत-अद्वैत ये और इसी तरह के अन्य द्वन्द्वों से भी क्या कोई अधिक विरोधी हो सकते हैं। भावात्मक और अभावात्मक या विध्यात्मक और निषेधात्मक सभी धर्म एक वस्तु में किस तरह सुसंगठित होकर रहते हैं इसका विश्लेषण अनेकान्त सिद्धान्त करता है । वह कहता है जो नित्य है, वह किसी दृष्टि से अनित्य भी है और जो अनित्य है वह किसी दृष्टि से नित्य भी है। परस्पर में विरोधी प्रतीत होने वाले नित्यत्व और अनित्यत्व धर्म परस्पर में आलिंगन-बद्ध होकर वस्तु में ऐसे रहते हैं कि एक के बिना दूसरे का अस्तित्व ही असंभव है। यह स्थिति सभी परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले धर्मों की है और दार्शनिक हैं कि नित्यत्व को अनित्यत्व का और अनित्यत्व को नित्यत्वता विरोधो मान कर और उनमें से एक का पक्ष लेकर परस्पर में विवाद करते हैं । किन्तु आचार्य हेमचन्द्र कहते हैं
आदीपमाव्योम समस्वभावं स्याद्वादमुद्रानतिभेदि वस्तु । तन्नित्यमेवैकमनित्यमन्यत्
इति त्वदाज्ञा द्विषतां प्रलापाः ।। दीपक से लेकर आकाश पर्यन्त एक से स्वभाव वाले हैं। इन्हीं की वात नहीं, कोई भी वस्तु इसका अतिक्रमण नहीं करती, क्योंकि सभी पर स्याद्वाद यानी अनेकान्त स्वभाव की छाप लगी हुई है। अतः दीपक अनित्य ही है और आकाश नित्य ही है ऐसा कहने वाले वस्तु स्वरूप को समझे नहीं हैं। द्रव्यदृष्टि से दीपक भी नित्य है और पर्याय दृष्टि से आकाश भी अनित्य है।
इस तरह अहिंसाबादी दर्शन वस्तु मात्र में से विरोध की अग्नि का शमन करके मैत्रीभाव का अनुपम उदाहरण उपस्थित करता है।
किन्तु एक देहाती कहावत है 'राडं रंडापा तब काटे जब रडुवे काटन दे', वस्तु तो परस्पर में विरोधी प्रतीत होने वाले असंख्य धर्मों को अपने अंक में समेटे हुए
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