Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 4
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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प्रकार चामुण्डरायने चारित्रसारग्रंथमें श्रावक और मुनि दोनोंके आचारका वर्णन किया है। चामुण्डरायका संस्कृत और कन्नड़ गद्यपर अपूर्व अधिकार है । उन्होंने ग्रंथान्तरोंके पद्य भी प्रमाणके लिये उपस्थित किये हैं।
अजितसेन अलंकारचिन्तामणिनामक ग्रंथके रचयिता अजितसेननामके आचार्य है। इन्होंने इस ग्रंथके एक संदर्भ में अपने नामका अंकन निम्न प्रकार किया है-- ___'अत्र एकाद्यक्रमेण पठिते सति अजितसेनेन कृतश्चिन्तामणि"
डॉ० ज्योतिप्रसादजीने' अजितसेनका परिचय देते हुए लिखा है कि अजितसेन यतीश्वर दक्षिणदेशान्तर्गत तुलुवप्रदेशके निवासी सेनगण पोरारिगच्छके मुनि संभवतया पार्श्वसेमके प्रशिष्य और पद्मसेनके गुरु महासेनके सधर्मा या गुरु थे।
अजितसेनके नामसे श्रृंगारमञ्जरीनामक एक लघुकाय अलंकार-शास्त्रका ग्रंथ भी प्राप्त है । इस ग्रन्थमें तीन परिच्छेद हैं । कुछ भंडारोंकी सूचियोंमें यह ग्रंथ 'रायभूप'को कृत्तिके रूप में उल्लिखित है। किन्तु स्वयं ग्रंथको प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि इस शृंगारमंजरीकी रचना आचार्य अजितसेनने शीलविभूषणा रानी बिटुलदेवीके पुत्र और 'राय' नामसे विख्यात सोमवंशी जैन नरेश कामरायके पढ़नेके लिए संक्षेपमें की है।
एक प्रतिके अन्तमें श्रीमदजितसेनाचार्यविरचिते.......' तथा दूसरोके अन्तमें 'श्रीसेनगणाग्रगण्यतपोलक्ष्मीविराजितसेनदेवयतीश्वरविरचितः' लिखा है। निःसन्देह विजयवर्गीने राजा कामरायके निमित्त श्रृंगाराणंवचन्द्रिका ग्रंथ लिखा है। सोमवंशी कदम्बोंकी एक शाखा वंगवंशके नामसे प्रसिद्ध हुई। दक्षिण कन्नड़ जिले तुलप्रदेशके अन्तर्गत बंगवाडिपर इस वंशका राज्य था। १२वीं-१३वीं शतीमें तुलुदेशीय जैन राजवंशोंमें यह वंश सर्वमान्य सम्मान प्राप्त किये हुए था। इस वंशके एक प्रसिद्ध नरेश वीर नरसिंहवंगराज (१९५७१२०८ ई०)के पश्चात् चन्द्रशेखरवंग और पाण्ड्यवंगने क्रमशः राज्य किया । तदनन्तर पाण्ड्यवंगकी बहन रानी बिट्ठलदेवी (१२३९-४४ ई.) राज्यको संचालिका रही । और सन् १२४५में इस रानी बिट्टलाम्बाका पुत्र उक्त कामराय प्रथम वंगनरेन्द्र राजा हुआ। विजयवर्णीने उसे गुणार्णव और राजेन्द्रपूजित लिखा है। १. अलंकारचिन्तामणि, शोलापुर संस्करण, पृ. ४४, पंक्ति ९ । २. बैन संदेश, शोषांक २, नवम्बर २०, १९५४, १० ७९ । ३, जैन ग्रंथ-प्रशस्ति-संग्रह, भाग १, वीरसेवा मन्दिर, दिल्ली, पु० ८९-९१ । ३० : तीयंकर महापौर और उनकी प्राचार्य-परम्परा