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संयुक्त पुरुष : श्रीगुरु विद्यानन्द
विराट् प्रकृति में से अनायास उठ कर चला आ रहा है निसर्ग पुरुष । पृथा के निरावरण वक्षोज का नग्न सुमेरु जैसे चलायमान है। उसी की कोख में से जन्म लेकर यह उसका विजेता और स्वामी हो गया है। नदी, पर्वत, समुद्र, वन-कान्तार, नर-नारी, सकल चराचर ने इस संयुक्त पुरुष में रूप-परिग्रह किया है । इसी से यह नितान्त नग्न, निग्रंथ, निष्परिग्रही है। इसी को वेद के ऋषि ने 'वातरशना'कह कर प्रणति दी है। मयूर-पीछी और कमण्डलुधारी दिगम्बर मुनि को देख कर बचपन से ही मुझे उस वातरशना का ध्यान आता रहा है। कहीं भी उसे विहार करते देख कर, मैं रोमांचित हो उठता हूँ, आँखें सजल हो आती हैं। निपट बालपन से ही यह फ़ितरत मुझ में रही है। आज स्पष्ट यह प्रतीति हो रही है, कि यह कोई निरा कुलजात रक्त-संस्कार नहीं है । यह मेरे जन्मजात कवि की चेतनागत सौन्दर्यदृष्टि का विजन-साक्षात्कार है।
योगीश्वर शंकर, ऋषभदेव, भरतेश्वर, महावीर की 'इमेज' तो इस तरह सामने आयी; पर उसका आन्तर वैभव और प्रकाश कहीं देखने को नहीं मिल रहा था। साम्प्रदायिक दिगम्बर जैन म नि के सामीप्य में आने पर मेरा वह विजन अधिकतर भंग ही होता रहा है। किन्तु अवचेतना में उसकी पुकार और खोज चुपचाप निरन्तर चलती रही।
सन् ७१ में मौत से ज झ कर नये जीवन के तट पर आ खड़ा हुआ था। वातावरण में भगवान् महावीर के आगामी महानिर्वाणोत्सव की गूंज सुनायी पड़ रही थी। नये जीवन की ऊष्मा से प्रफुल्लित मेरे हृदय में कुछ ऐसा भाव जागा, कि क्यों न भगवान् महावीर पर एक महाकाव्य लिखू । पर ऐसे सृजन में तो समाधिस्थ हो जाना पड़ता है । भोजन और उसकी व्यवस्था को भूल जाना होता है । भौतिकवादी पश्चिम में सजन की ऐसी भाव-समाधि सम्भव हो तो हो, आध्यात्मवादी भारत में उसकी कल्पना करना भी अपराध है; किन्तु वह अपराध मैंने शुरू से ही किया है,और नतीजे में सदा बर्बादी के आलम का सुल्तान हो कर रहा हूं । महावीर के आवाहन से जब दिगन्त गूंज रहे थे, तो सौ गुना ज्यादा वह गुनाह करने को मैं बेचैन हो उठा। बदले में सर्वत्र पायी अवज्ञा, उपेक्षा, अपमान । निर्वाणोत्सव के झंडाधारी नेताओं को ऐसे किसी महाकाव्य में दिलचस्पी नहीं थी। वे किसी भी किराये के लेखक से सस्ते दामों पर नारों के तख्ते (प्लेकार्ड स) और प्रचार-पोथियाँ लिखवाने में ही अपने कर्तव्य की पूर्णाहुति समझ रहे थे । या फिर क़दीमी जमाने से चले आ रहे ढर्रे पर, शोधअनुसंधान के विद्वानों से जैनधर्म की प्राचीनता और महिमा पर लेख लिखवाने और निर्वाणशती-ग्रंथ निकालने के आयोजन में बहुत व्यस्त थे ।
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तीर्थंकर / अप्रैल १९७४
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