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संस्कार और वैराग्य
सुरेन्द्र को बचपन से ही जिनेश्वर की सेवा में रुचि थी । आरम्भ से ही उनकी वृत्ति में अनासक्ति थी । इसका कारण था पूर्वजन्मों के सुसंस्कारों से युक्त उन्नत आत्मा !
सुरेन्द्र के पिताजी ने बचपन से सुरेन्द्र को मिथ्याचारों और आडम्बरों से दूर रखा ।
अपने ताऊ से सुरेन्द्र ने सीखा प्रेम और अनुशासन - युक्त जीवन ।
श्री शान्तिसागर छात्रावास में रहकर सुरेन्द्र पर विश्वबन्धुत्व के संस्कार पड़े । जन्मजात गुणों को विकसित होने का अवसर यहीं मिला ।
कच्ची उम्र में ही घर छोड़ा । स्वावलम्बी बने । ठोकरें खायीं मीठे कड़वे अनुभव लिये; और उन सब अनुभवों से संसार के प्रति विरक्ति और सांसारिक सुखों के प्रति अनासक्ति हो गयी ।
“अन्यथा शरणं नास्ति" भाव से श्री शान्तिनाथ भगवान की गुहार की; रोगमुक्त होने पर श्री जिनेश्वर में भक्ति बढ़ती गयी ।
पिछले पुण्यकर्मों से ही स्वयं साक्षात्कार हुआ । लम्बी बीमारी में "यह शरीर नश्वर है, जीवन क्षण-भंगुर है, कोई किसी का नहीं" यह दुर्लभबोधि प्राप्त हो गयी ।
वैराग्य-वृत्ति तो उनमें जन्मजात थी । संस्कारों से यह वृत्ति दृढ़ होती गयी । साधु-संगति से दीक्षा लेने की इच्छा अदम्य हो उठी । ऐसे समय मुनिराज श्री महावीर - कीर्ति शेडवाल पहुँचे और सुरेन्द्र की मनोकामना पूरी हो गयी ।
स्थान : तमदड्डी, सन् १९४६,
दीक्षा ग्रहण : आचार्य महावीरकीर्तिजी; नाम हुआ —— पार्श्वकीर्ति !
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मुनि-दीक्षा-ग्रहणः आचार्य देशभूषणजी; स्थान : दिल्ली, तिथि - २५-७-१९६३, नाम हुआ -- विद्यानन्द ! !
मुनिश्री विद्यानन्द - विशेषांक
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