Book Title: Tirthankar 1974 04
Author(s): Nemichand Jain
Publisher: Hira Bhaiyya Prakashan Indore

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Page 16
________________ पड़े ही उन्हें श्री शान्तिनाथ भगवान का दर्शन होता। वे नमस्कार करते। अन्त में विचारों के मन्थन से संकल्प उभरा ! संकल्प था-"है प्रभो ! आप ही मुझे इस विषम ज्वर से बचावेंगे यदि मैं बच गया तो आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत धारण करूंगा, महात्मा गांधी जैसा मेरा वेश होगा । धर्म-सेवा और राष्ट्र-सेवा मेरा अविचल व्रत होगा।" श्री जिनेश्वर की कृपा और संतों के आशीर्वाद से सुरेन्द्र ठीक हो गये। बीमारी में खान-पान का पथ्य पालते-पालते सुरेन्द्र मन से ही संयमी बन गये। ईश्वर-भक्ति में अंतर्मुख बन गये । संसार के अनुभवों के कारण विषय-वासनाओं से अनासक्त बन गये। जो संस्कार मन पर पहले से ही थे, जो संस्कार बीज रूप में विद्यमान थे, वे अब फल-फूलकर लहलहाने लगे। अनुभव-कोंपलें बढ़ने लगीं। ज्ञान-रूपी कलियाँ खिलने को उद्यत हो उठीं। फिर एक चातुर्मास आया ! सन् १९४६ का चातुर्मास !! संयम-मूर्ति, ज्ञान-सूर्य महामुनिराज श्री महावीरकीतिजी ने शेडवाल में मंगल-विहार किया। रोग से जर्जर सुरेन्द्र को मानो अमृत मिल गया। आत्मिक शान्ति की संजीवनी से सुरेन्द्र का पुनर्जन्म हुआ। सुरेन्द्र प्रतिदिन मुनिजी के उपदेश सुनते । रोज उपदेश सुनकर वे कर्मफलों के आवरणों से उबरने लगे। आत्मा के आनन्द में मग्न सुरेन्द्र, मुनिजी के सान्निध्य में बने रहते। अपटूडेट वेशभूषा में रहने वाले सुरेन्द्र ने बिलकुल सादा वेश धारण कर लिया। माता-पिता और इष्ट मित्रों को चिन्ता हुई, मगर सुरेन्द्र ने अपने मन की बात औरों पर प्रगट नहीं की। सारे ग्राम वासियों ने इस परिवर्तन को देखा। सांसारिक सुख, मोह-माया को त्याग कर सुरेन्द्र दूसरा ही मार्ग चुन रहे हैं, यह देखकर माता-पिता को गहरी चिन्ता होती। सुखों के स्वर्ण-पिंजरे में बन्द मन का हीरामन, पिंजरे से उड़ने के लिए तैयार था, वीतरागी बनने के लिए कृत-संकल्प था। प्रतिदिन नियम से उपदेश सुनने के लिए आने वाले सुन्दर युवक की ओर म नि महावीरकीर्तिजी का आकृष्ट होना स्वाभाविक ही था। सुरेन्द्र की ज्ञान-पिपासा ने उन्हें प्रभावित किया। वे बड़े प्रेम से सुरेन्द्र से बातें करते और उनके विचारों को सुनकर आनन्दित हो उठते । ऐसे ही एक दिन सुरेन्द्र ने स्वामीजी से जात-रूप की दीक्षा की याचना की। मुनिजी प्रसन्न थे, मगर सुरेन्द्र की छोटी अवस्था देखकर माता-पिता से अनुमति लेने मुनिश्री विद्यानन्द-विशेषांक १७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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