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(२१) ३४. चौतीसमे स्तंभमें जैनमतकी कितनीक बातेंपर कितनेही लोक अनेक प्रकारके वितर्क ऊठाते हैं, उनके उत्तर दिये हैं.
३५. पेंतीसमे स्तंभमें शंकरदिग्विजयानुसार, शंकरस्वामीका जीवनचरित्र है.
३६. छत्तीसमें स्तंभमें वेदव्यास, और शंकरस्वामीने, जो जैनमतकी सप्तभंगीका खंडन किया है, उसका वेदव्यास और शंकरस्वामीकी जैनमतानभिज्ञताका दर्शक, उत्तर दिया है. तथा जैनमतवाले सप्तभंगी जैसें मानते हैं, तैसें उसका स्वरूप, और सप्तनयादिकोंके स्वरूपका संक्षेपसें वर्णन करा है.
ऐसे विचित्र वर्णनके साथ यह ग्रंथ भरा हुआ है; इसवास्ते निष्पक्षपाती सज्जन पुरुषको,अथसें लेके इतिपर्यंत बराबर एकाग्रध्यान रखके इस ग्रंथको वाचना, और सत्या. सत्यका निर्णय करना उचित है. क्योंकि, पक्षपात करना यह बुद्धि का फल नहीं है, परंतु तत्त्वका विचार करना, यह बुद्धिका फल है. "बुद्धेःफलं तत्त्वविचारणंचेतिवचनात्"
और तत्त्वका विचार करके भी पक्षपातको छोडकर जो यथार्थ तत्त्वका भान होवे, एसको अंगीकार करना चाहिये; किंतु पक्षपात करके अतत्त्वकाही आग्रह नही करना चाहिये. यतः ॥ आगमेन च युक्त्या च योर्थः समभिगम्यते ।
परीक्ष्य हेमवद् ग्राह्यः पक्षपाताग्रहेण किम् ॥ इत्यलम्बहु पल्लवितेन विद्वद्वर्येषु ॥
भावार्थ:-आगम (शास्त्र ) और युक्तिकेद्वारा जो अर्थ प्राप्त हो उसको सोनेके समान परीक्षा करके ग्रहण करना चाहिये; पक्षपातके आग्रह (हठ) से क्या है. ||
- अब सर्व सज्जन पुरुषोंको, मैं, विज्ञप्ति करताई कि, इस ग्रंथको समाप्त करके, गुरुजी महाराज श्री श्री श्री १००८ श्रीमद्विजयानंदमूरीश्वरजी [ आत्मारामजी ] महाराज जीने नकल करनेवास्ते मुजको दीया. विहारादि कितनेहो कार्यक विक्षेप, नकल पूर्ण होने में विलंब हुआ; तथापि, जोर देनेसें सनखतग ग्राम में नकल पूर्ण हो गई. तदनंतर सनखतरेसें प्रतिष्टादिसंबंधि कार्यके व्यतीत होर, श्री गुरुजीमहाराजजी इस क्षेत्रमें [ गुजरांवालेमें ] सं. १९५३ प्रथम ज्येष्ट सुदि द्वितीको पधारे. बाद थोडेही समय में, अर्थात् संवत १९५३ प्रथम ज्येष्ट सुदि अष्टमीको स्वर्गवास होगए !!! इसपास्ते सम्पूर्ग इस ग्रंथको, रे, आप शुद्ध नही कर सके हैं !! किंतु, मैने, स्वबुद्ध्यनुसार देखके, शुद्ध करा है. इसवास्ते, इस ग्रंथमें जो कोई अशुद्धतादि दोष रह गया होवे, सो, सर्व सजन पुरुष सुधारके बांचे, और क्षमा करें “॥ विस्मृति स्वभावोहि छद्मस्थानामतो मिथ्यादुष्कृत मेस्त्विति ॥"
श्री वीर संवत् २४२३ ॥ विक्रम संवत् १९५४ ॥
मुनि वल्लभविजय.
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