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ध्यान का प्रारम्भ कहां से करें?
टिकेगा। प्रियता के बिना मन कहीं टिकता नहीं है। जहां प्रियता है, आदमी टिक पाएगा। अप्रियता में ऊब आ जाएगी, आदमी टिक नहीं पाएगा। बहुत सुन्दर कहा गयाध्येय वह बनाओ, जो इष्ट हो। जो इष्ट नहीं है, उस ध्येय पर मन टिकेगा नहीं।
एक व्यक्ति जैन परिवार में जन्मा हुआ है, उसे कहा जाए-तुम पार्श्वनाथ का ध्यान करो, महावीर का ध्यान करो तो एकाग्रता जल्दी सध जाएगी। यदि उसे कहा जाए कि तुम विष्णु का ध्यान करो, शेषशायी मुद्रा में विष्णु का ध्यान करो तो एकाग्रता जल्दी नहीं सधेगी। एक वैष्णव व्यक्ति से कहा जाए-तुम महावीर और पार्श्वनाथ का ध्यान करो तो एकाग्रता जल्दी नहीं सधेगी। उस इष्ट का चुनाव करना होता है, जिस पर हमारी श्रद्धा जमी हुई है। महर्षि पतंजलि ने इस सचाई को प्रकट किया था। उन्होंने ध्यान के कई प्रकार बतलाए और अन्त में लिख दिया-यथाभिमतस्य ध्यानाद् वा।' जो अभिमत हो, जो अच्छा लगता हो, उसी को अपनाओ। यह आग्रह नहीं किया कि तुम यही करो। एकांगी अभिमत
___ध्यान की पद्धतियों में भी एकांगी आग्रह बहुत चलता है। कहा जाता है-ध्यान का शिविर है, स्वाध्याय मत करो, यह मत करो, वह मत करो, केवल ध्यान ही ध्यान करो। यह एकांगी अभिमत है। हम केवल एकांत का नहीं, अनेकांत का प्रयोग करें। केवल विचार ही न करें और केवल अविचार ही न रहें। केवल विचार से काम नहीं चलेगा और केवल अविचार तक शायद पहुंचा नहीं जा सकेगा। हो सकता है कोई पहुंच भी जाए किन्तु अविचार के साथ विचार का होना अत्यन्त अनिवार्य है। मनुष्य चिन्तन करता है और इसीलिए वह समनस्क है। वह अमनस्क नहीं है, एकेन्द्रिय नहीं है, जिसमें विचार न हो। जब तक केवलज्ञान की स्थिति न आ जाए तब तक विचार रुक नहीं सकता। जब केवली बन जाए तब विचार नहीं, साक्षात्कार होगा।
__ हमारी दो भूमिकाएं हैं-विचार की भूमिका और साक्षात्कार की भूमिका। जहां साक्षात्कार हो गया, विचार की आवश्यकता नहीं है। जब तक साक्षात्कार नहीं है, प्रत्यक्षीकरण नहीं है तब तक विचार का होना जरूरी है। विकास का बड़ा माध्यम है विचार। ध्यान का इतना ही प्रयोजन है कि अनावश्यक विचार न आए। जिस समय जो करना है, वह कर सकें, इस स्थिति का निर्माण हो जाए। मालिक की मनोवृत्ति : कर्मचारी की मनोवृत्ति
दो प्रकार की मनोवृत्तियां होती हैं-मालिक की मनोवृत्ति और कर्मचारी की मनोवृत्ति।
अमेरिका के उद्योगपति फोर्ड ने अपने सेक्रेटरी से पूछा-'कल्पना करो-मैं
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