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ध्यान की दिशा बदलने के लिए
मनुष्य और पशु के बीच एक भेदरेखा खींची जा सकती है और वह यह है-जो मौलिक वृत्तियों के आधार पर जीता है, वह पशु है। जो मौलिक वृत्तियों का परिष्कार करता है, वह मनुष्य है।
मनोविज्ञान की भाषा में भूख, प्यास, सेक्स, संघर्ष आदि-आदि मौलिक मनोवृत्तियां हैं। पशु प्रकृति का जीवन जीता है। इसका अर्थ है कि वह मौलिक वृत्तियों के अनुसार चलता है। भूख लगती है तो खाने का प्रयत्न करता है। प्यास लगती है तो पानी पीने का प्रयत्न करता है। काम-वासना जागती है तो उसका सेवन कर लेता है। नींद आती है तो नींद ले लेता है किन्तु किसी पशु ने नींद का अतिक्रमण किया हो, उपवास किया हो, ब्रह्मचर्य का पालन किया हो, यह कभी सुनने में नहीं आया। मौलिक वृत्तियों में परिष्कार मनुष्य ही कर सकता है। मनुष्य इसलिए कर सकता है कि उसके पास विवेक चेतना है, रीजनिंग माइण्ड है। वह अपने विवेक से निर्णय करता है कि कब खाना चाहिए, कब नहीं खाना चाहिए। वह जानता है-उपवास भी करना आवश्यक है, कष्ट सहना भी आवश्यक है, ब्रह्मचर्य भी आवश्यक है। इन मौलिक वृत्तियों का परिष्कार करना आवश्यक है। यह चेतना केवल मनुष्य में ही होती है। यदि यह भेदरेखा न हो, मनुष्य केवल मौलिक वृत्तियों के आधार पर चले तो फिर मानना होगा-वह आकार मे मनुष्य है किन्तु प्रकृति में पशु। वृत्ति-परिष्कार तभी संभव है, जब भीतर की सचाइयो को समझने की क्षमता जाग जाए।
हमारे सामने दो दिशाएं हैं-बाहर की दिशा और भीतर की दिशा। बाहर के ओर हमारा ध्यान बहुत जाता है। ऐसा कोई मनुष्य नहीं होगा, जो बाहर का ध्यान न करता हो। एक छोटे बच्चे के सामने टी.वी. आई और एकदम ध्यान खिंच गया। क्रिकेट मैच हो रहा है, कमेन्ट्री आ रही है, उसमें इतना ध्यान चला जाता है कि खाने को भूल जाता है। ध्यान कौन नहीं करता? जिसमें रुचि है, वह हर व्यक्ति ध्यान करता है ध्यान का एक कारक तत्त्व है-आकर्षण । संस्कृत साहित्य का रूपक है-एक आदमी के
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