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तब होता है ध्यान का जन्म
सबसे पहले यह चिंतन करना चाहिए - धन और पदार्थ, संयोग और सम्बन्ध - ये सारे उपयोगी हैं किन्तु हमारे आकर्षण के केन्द्र नहीं बन सकते। मैं चेतनावान् हूं तो धन या पदार्थ मेरे आकर्षण का केन्द्र कैसे हो सकता है? मैंने भ्रांतिवश उसे आकर्षण का केन्द्र मान रखा है। वह मेरे लिए सहयोगी हो सकता है, उपयोगी हो सकता है, पर आकर्षण का केन्द्र नहीं हो सकता ।
एक आदमी कमजोर है, बूढ़ा है, वह लाठी लेकर चलता है। लाठी सहायक हो सकती है किन्तु आकर्षण का केन्द्र नहीं । लाठी खराब हो गई तो उसकी चिकित्सा करने की जरूरत नहीं है । एक खराब हो गई तो दूसरी आ जाएगी। यदि वह भी टूट गई तो फिर नई आ जाएगी। ध्यान कहां रहता है? आकर्षण का विषय बनता है कि पैर कैसे ठीक हों? पैर में ताकत कैसे आए? अपने पैरों के बल पर चल सकें, इसलिए व्यक्ति पैरों की चिकित्सा करता है, दवा लेता है और उसे ठीक करना चाहता है । पहला स्थान है पैर का । लाठी का पहला स्थान कभी नहीं हो सकता । उसका स्थान गौण रहेगा। जहां सहारे की जरूरत होगी वहां उसका उपयोग होगा । पदार्थ एक बूढ़े की लाठी है। जहां जरूरत होगी वहां उसका उपयोग किया जा सकता है किन्तु वह हमारे आकर्षण का केन्द्र नहीं बन सकता। हमने भ्रमवश उसको आकर्षण का केन्द्र मान लिया है, प्रथम स्थान दे दिया है ।
दृष्टिकोण सही बने
आजकल प्रशासन के क्षेत्र में यह होता है कि प्रमोशन किसी का होना होता है। और प्रमोशन किसी का कर दिया जाता है । जो जूनियर था, उसका प्रमोशन कर दिया गया और जो सीनियर था, वह बेचारा ऐसा ही रह गया । ये गड़बड़ियां बहुत चलती हैं प्रशासन के क्षेत्र में । ऐसा लगता है कि हमने भी महत्त्व किसी को देना था और महत्त्व किसी दूसरे को दे दिया । गलत स्थान पर किसी गलत व्यक्ति को बिठा दिया । महत्त्व देना था चेतना को और महत्त्व दे दिया पदार्थ को । हमारा दृष्टिकोण मिथ्या बन गया और इस मिथ्या दृष्टिकोण से हमारी रुचियां भी मिथ्या बन गईं, गलत बन गईं। जब रुचि गलत बन गई तब ध्यान का विषय सही कैसे होगा ? इस स्थिति में व्यक्ति ध्यान की बात सोचे तो उसे पहले अपने दर्शन और रुचि का विश्लेषण करना होगा, फिर रुचि का परिवर्तन करना होगा। उसके बाद आत्मा की प्रेक्षा करने की बात आएगी और तभी ध्यान सार्थक होगा |
अनेक व्यक्ति यह शिकायत करते हैं- ध्यान करते-करते दस वर्ष हो गए पर अभी कुछ मिला नहीं। मैं उनसे पूछता हूं- यह बताओ, रुचि बदली या नहीं? उत्तर मिलता है- रुचि तो नहीं बदली। मैं उनसे कहता हूं-फिर दस पर एक शून्य और लगा दो। पूरा शतक बीत जाएगा तो भी तुम्हारी शिकायत बराबर बनी रहेगी कि मुझे कुछ
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