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तब होता है ध्यान का जन्म ओर आदमी वैसा का वैसा बना रहता है। पचास वर्ष के बाद भी पूछा जाए-क्या बदलाव आया? क्रोध कम हुआ? अहंकार कम हुआ? लोभ और वासनाएं कम हुईं? इसका उत्तर सकारात्मक नहीं होगा। पचास वर्ष तक धर्म की साधना करे और आदमी न बदले तो फिर धर्म करने का अर्थ क्या है? आज का युवक कहता है-मेरे पिताजी को सामायिक, पूजा-पाठ करते हुए इतने वर्ष हो गए हैं । वे घर में सबसे ज्यादा धर्म करते हैं और घर में सबसे ज्यादा लड़ाई भी वे ही करते हैं। यदि आप चाहें-पढ़ा-लिखा युवक साधुओं के पास जाए, मन्दिर में जाये तो क्या वह जाएगा? यदि उसे यह लगेगा-धर्म से यह परिवर्तन आता है तो कहने की जरूरत नहीं पड़ेगी, वह अपने आप संतों के पास चला जायेगा। व्यक्ति दुकान पर बैठा, रुपया आ रहा है, यह देखता है इसलिए वह दुकान पर अपने आप बैठ जाता है।
मैंने कुछ युवकों से पूछा--'पढ़ाई करते हो?' 'पढ़ाई छोड़ दी।' 'क्यों छोड़ दी पढाई?' 'नौकरी लग गई।' 'अरे ! अभी दसवीं कक्षा तक पढ़े और धंधे में लग गये?'
'हमारा कमाने में आकर्षण हो गया। पिताजी ने प्रेरणा नहीं दी, किंतु दुकान पर देखा-पिताजी रुपये कमा रहे हैं, हमारा कमाने में आकर्षण हो गया , व्यक्ति नहीं, आचरण बोले
व्यक्ति स्वत: धंधे में लग जाता है। क्या कभी बच्चे को कहना पड़ता है-नाश्ता करना है तो आओ, बैठो। वह पहले से ही तैयार रहता है। प्रश्न है-धर्म के मामले में यह क्यों कहना पड़े कि चलो, साधुओं के पास चलो, यह करो, वह करो। यदि वास्तव में धर्म करने वाले का आचरण बोले तो शायद कहना नहीं पड़े। आज की समस्या है-धर्म करने वाला बोलता है, उसका आचरण नहीं बोलता, इसीलिए आज के युवक के मन में एक प्रतिक्रिया होती है। वह सोचता है-यदि धर्म करने से जीवन में कोई परिवर्तन नहीं आता है तो मैं धर्म क्यों करूं? यह बहुत स्वाभाविक चिंतन है। यद्यपि कोई भी व्यक्ति एक ही छलांग में वीतराग नहीं बनता, किन्तु कम-से-कम इतना तो होना ही चाहिए कि घर में सामंजस्य रहे, शांतिपूर्ण वातावरण रहे, बार-बार क्रोध न आए, अधिक लोभ न सताए। एक युवक कहता है-मैं दहेज नहीं लूंगा और पिता कहता है-तुम मूर्ख हो । कुछ जानते ही नहीं, चुप रहो। शादी किसकी है? युवक की है या उसके पिता की? पर लोभ इतना हो जाता है कि व्यक्ति कुछ सोच नहीं पाता। युवक का मन प्रतिक्रिया से भर जाता है।
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