Book Title: Tab Hota Hai Dhyana ka Janma
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 173
________________ १६२ तब होता है ध्यान का जन्म है - प्रदेशोदय से और विपाकोदय से । कर्म का विपाक न हो और वह प्रदेशोदय में ही भोग लिया जाए अथवा विपाक हो तो तीव्र न हो, मन्द हो जाए । यह करना हमारे हाथ में है । यही है हमारे पुरुषार्थ का सूत्र । भगवान महावीर ने पुरुषार्थ और पराक्रम को महत्त्व दिया। इसलिए दिया कि यदि तुम पुरुषार्थ नहीं करोगे, नींद में सोए रहोगे तो कर्म तुम्हारे पर हावी हो जाएगा। यह बहुत ध्यान देने की बात है कि कर्म कब बलवान बनता है? जब हमारा पुरुषार्थ सो जाता है, तब कर्म को अपना काम करने का मौका मिल जाता है । यदि हमारा पुरुषार्थ सक्रिय रहता है; सम्यक् पुरुषार्थ चलता है तो कर्म का एकछत्र साम्राज्य नहीं होता। हम बार-बार उसको धर दबोचते हैं । जब भी कोई विपाक आने लगता है, हम उसको बदल देते हैं, उसको हटा देते हैं और आने से रोक देते हैं । भाग्य परिवर्तन का सूत्र अपने भाग्य को बदलने का यह महत्त्वपूर्ण सूत्र है । अपने अच्छे योग को प्रकट करने का और बुरे योग को मिटाने का इतना महत्त्वपूर्ण सूत्र कोई ज्योतिषी भी नहीं दे सकता। वह सूत्र है जागरूकता- - सद्प्रवृत्ति, अच्छा चिन्तन, अच्छा भाव । विधायक भाव जितना आपके भाग्य को बदल सकता है, कोई भी ज्योतिषी नहीं बदल सकता। अच्छा पराक्रम चले तो जीव शक्तिशाली बनेगा, क्षायोपशमिक की प्रेरणा प्रबल बनेगी और कर्म का विपाक दबता चला जायेगा। बहुत सारे ज्योतिषी उपचार बताते हैं । किसी के शनि की दशा आ गई, राहु की दशा आ गई, ज्योतिषी कहते हैं - तुम इतना दान दो, यह करो, वह करो, जप करो। वे कहते हैं - तुम इस प्रकार का अनुष्ठान करो, तुम्हारा भाग्य बदल जाएगा। उनसे भाग्य कितना बदलता है, मैं नहीं जानता किन्तु जो जागरूक बन जाता है, विधायक भाव में अपने जीवन को लगा देता है, निषेधात्मक भाव में कम से कम जाता है, उसका भाग्य निश्चित बदल जाता है । उसकी सारी आंतरिक आवाजें, आंतरिक प्रेरणाएं प्रफुल्लित हो जाती हैं। बहुत बड़ा सूत्र है - पुरुषार्थ । हम इस सचाई को जानें- जिस शरीर के द्वारा हिंसा होती है, अहिंसा उसी शरीर के द्वारा होती है । जिस हाथ के द्वारा चांटा जड़ा जाता है, उसी हाथ के द्वारा अभय की मुद्रा बनती है । अभय की मुद्रा और चांटा मारने में इसी हाथ का उपयोग होता है । जिस पैर से अच्छी गति की जाती है, उसी पैर से लात भी मारी जा सकती है। ये हाथ, पैर और इन्द्रियां शरीर के अवयव हैं। जब-जब ये औदयिक प्रणाली के साथ जुड़ जाते हैं, तब-तब ये हिंसा, झूठ आदि में लग जाते हैं और जब-जब ये क्षयोपशम की प्रणाली के साथ जुड़ते हैं तब-तब हमारे लिए कल्याणकारी बन जाते हैं। मार्ग बहुत स्पष्ट है। प्रश्न है प्रयोग की दिशा का और पुरुषार्थ को जगाने का । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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