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मानवीय सम्बन्ध और ध्यान कर देता है-देखो, यह करना अच्छा नहीं है।
हम जागरूक बन जाएं तो भीतर की इस आवाज का पता चलने लग जाएगा। आवाज कोई बोलने वाला नहीं है, वह सुनाई भी नहीं देगी किन्तु यह भाषा स्पष्ट आ जाती है-सामने जो होने वाला है, वह ठीक नहीं है। यह स्थिति तब संभव होती है जब जागरूकता बढ़े। विकास करना है जागरूकता का। हम हर घटना के प्रति जागरूक बन जाएं। क्रोध करें तो भी हमारी यह जागरूकता रहे-देखो, क्रोध आ गया, क्रोध हो गया। यह जागरूकता रहेगी तो क्षयोपशम बहुत अच्छा काम करेगा और तत्काल सावधान कर देगा। बहुत लोग ऐसे होते हैं, वे आवेग आते ही संभल जाते हैं। आवेग आना औदयिक भाव है और संभल जाना क्षायोपशमिक भाव।
दो प्रकार की प्रेरणाएं हमारे भीतर चलती हैं। एक है कर्म के उदय की प्रेरणा और दूसरी है क्षयोपशम की प्रेरणा। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है-एक है चित्त की मलिनता की प्रेरणा और दूसरी है चित्तशुद्धि की प्रेरणा। कभी-कभी औदयिक प्रेरणा प्रबल हो जाती है, आदमी आवेग की स्थिति में चला जाता है किन्तु वह आवेग में निरन्तर नहीं रहता, क्षयोपशम की प्रेरणा आवेश का नियमन कर देती है। जब वह प्रेरणा अधिक शक्तिशाली बन जाएगी, आवेश शांत हो जाएगा। क्या कभी किसी को चौबीस घंटे खाते हुए देखा जाता है? क्या कभी किसी को चौबीस घंटे क्रोध करते हुए देखा जाता है? कोई भी व्यक्ति चौबीस घंटा बुरा काम नहीं करता, वह बीच में विराम लेता है। वह जो विराम का क्षण है, उसके पीछे हमारी क्षयोपशम की प्रेरणा काम करती है। बलवान कौन?
पूछा गया-बलवान कौन? जीव बलवान है या कर्म? दोनों में शक्तिशाली कौन है? इस प्रश्न का उत्तर देना बड़ा कठिन है। इसका उत्तर निरपेक्ष नहीं, सापेक्ष ही दिया जा सकता है। आचार्य ने समाधान दिया-कहीं-कहीं जीव बलवान होता है और कहीं-कहीं कर्म बलवान होता है। जीव का मतलब है क्षयोपशम भाव। सर्वत्र जीव बलवान नहीं होता और सर्वत्र कर्म बलवान नहीं होता। दोनों का अपना-अपना दांव है, दोनों का अपना-अपना बल है। हमारी जागरूकता प्रखर है तो जीव अधिक समय बलवान रहेगा और जागरूकता नहीं है तो कर्म अधिक समय बलवान् रहेगा। यह निश्चित है कि कर्म का परिणाम भुगतना पड़ेगा। किन्तु क्षयोपशम की प्रबलता में कर्म का विपाक शक्तिशाली नहीं रह पाएगा। यदि क्षयोपशम तीव्र होगा तो जीव शक्तिशाली रहेगा, कर्म का विपाक मंद हो जाएगा। कर्म का विपाक दो तरह से भोगा जाता
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