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पर्यावरण और ध्यान
ध्यान का एक लक्ष्य है-सत्य और ज्ञाता के बीच परदा न रह । याद बाच में व्यवधान आ जाता है तो दूरी बढ़ जाती है। ज्ञान अव्यवहित और साक्षात् हो। ज्ञाता और सत्य के बीच सीधा सम्पर्क बहुत काम का होता है। टेलिफोन का आविष्कार हुआ इसीलिए कि सीधा सम्पर्क हो जाए। सीधा सम्पर्क सधे, यह बहुत आवश्यक है। सत्य के साथ सीधा सम्पर्क तब हो सकता है, जब व्यक्ति ध्यान की गहराई में जाए। अन्यथा उसका साक्षात्कार सम्भव नहीं है। आज का जो दृष्टिकोण बना हुआ है, किसी एक आदमी का नहीं, किसी एक जाति का नहीं किन्तु पूरे मानव समाज का और वह है उपभोक्ता-संस्कृति से उपजा हुआ दृष्टिकोण।
__आज यह धारणा बनी हुई है-सब पदार्थ उपभोग के लिए बने हैं। इस मिथ्या दृष्टिकोण से पर्यावरण का प्रदूषण हो रहा है। बहुत सारे वैज्ञानिक, सामाजिक कार्यकर्ता, राजनेता बार-बार इस बात को दोहराते हैं-पर्यावरण का प्रदूषण हो रहा है और यही क्रम चलता रहा तो एक दिन पृथ्वी हमारे लिए उपयोगी नहीं रहेगी, प्राणी मात्र के लिए रहने लायक नहीं रहेगी, भयंकर बन जायेगी। इसलिए पर्यावरण का ज्ञान कराया जाए और इस प्रदूषण को समाप्त किया जाए। दुनिया के हर कोने में पर्यावरण के लिए आन्दोलन चल रहा है। क्या केवल आन्दोलन से पर्यावरण के प्रदूषण को मिटाया जा सकता है? ऐसा संभव नहीं लगता। प्रदूषण का जो मूल कारण है, वह है मिथ्या दृष्टिकोण। जब तक दृष्टिकोण सम्यक् नहीं बनता, प्रदूषण को मिटाने की बात कोरी कल्पना रह जाएगी।
हम लोग मुनि बने । नए मुनि को सबसे पहले दशवैकालिक सूत्र सिखाया जाता है। उसका एक सूक्त है-'पुढो सत्ता-प्रत्येक प्राणी की स्वतंत्र सत्ता है। चाहे वह छोटा पौधा है, चाहे वह कोंपल है, चाहे वह छोटा पत्ता है और चाहे वह एक छोटा सा अग्नि कण है। सबकी स्वतंत्र सत्ता है। एक मिथ्या धारणा बन गई और यह मान लिया गया
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