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मानवीय सम्बन्ध और ध्यान
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में जाने का मूल्य इसीलिए है कि आदमी दिनभर पदार्थों के बीच में रहता है। वह सुबह और शाम किसी समय धर्मस्थान में जाये, धर्मगुरु की उपासना में जाये और वहां जाकर ध्यान करे, चित्त की शुद्धि बनाये, किन्तु आज उसका रूप बिगड़ गया। धर्मस्थान में जाने का यह मतलब नहीं है कि वह धर्मस्थान में जाकर चित्त की शुद्धि करे और बाहर आकर विक्रिया करे, मलिनता करे, मलिनता उसकी प्रवृत्तियों में संक्रांत हो जाए। आज मनुष्य ने धर्म को धर्मस्थान तक सीमित कर दिया। उसने धर्मस्थान में चेतना की सन्निधि नहीं पाई इसलिए धर्मस्थान के बाहर जो व्यवहार होना चाहिए, वह नहीं हुआ। अणुव्रत आन्दोलन ने इस ओर ध्यान आकृष्ट किया-तुम्हारा धर्म धर्म-स्थान तक सीमित न रहे, उसका मानसिक जीवन में, व्यावहारिक जीवन में उपयोग होना चाहिए। अन्यथा धर्म करने की सार्थकता क्या होगी?
व्यक्ति से पूछा गया-क्या तुम्हें कभी दुःख के बाद सुख होता है?' उसने कहा-'हां, मुझे बहुत बार दुःख के बाद सुख का अनुभव होता है।' 'कब होता है? किस-किस स्थिति में होता है?'
वह कंजूस आदमी था, उसने कहा-'अच्छा, मैं एक बात बताता हूं। मेरे यहां पाहुनें आ जाएं और मुझे कहा जाए कि तुम्हारे यहां भोजन करना है तो मुझे बड़ा दुःख होता है। यदि उनको कोई सन्मति आ जाए और वे कहें-नहीं, अभी भोजन नहीं करेंगे, आज तो दूसरे के घर पर जाएंगे, तो मुझे बड़ा सुख होता है। यह दु:ख के बाद होने वाला सुख है। उस स्थिति में मैं सोचता हूं कि मैं निहाल हो गया।' प्राप्ति का क्षेत्र : प्रयोग का क्षेत्र
पाहुना आए और भोजन कराने का प्रसंग आए तो दुःख की अनुभूति। उसे भोजन न कराना पड़े तो सुख की अनुभूति । व्यक्ति धर्मस्थान में जाता है और वहां से खाली हाथ लौट आता है। धर्मस्थान में जो पाता है, उसे वहीं छोड़ आता है। यह दु:ख की बात है। वह उसे भूलकर अपने कार्यों में उसी प्रकार संलग्न हो जाता है, यह दु:ख के बाद सुख की बात मानता है। वह जाता है सुख के लिए, चित्त की शुद्धि के लिए और वहां से आने के बाद ज्यादा अशुद्धि कर लेता है। होना यह चाहिए-जो चित्त की शुद्धि वहां हुई, उसका उपयोग करे। धर्म स्थान प्राप्ति का क्षेत्र है और समाज प्रयोग का क्षेत्र । यदि वहां आकर उसका उपयोग नहीं किया तो एक मखौल जैसा बन जाएगा। वस्तुत: आज ऐसा मखौल बन रहा है। बहुत सारे लोग कहते हैं-धर्मस्थान में जाते हैं तो धार्मिक बन जाते हैं और जब बाहर आते हैं तो रूप दूसरा बन जाता है। यह क्यों होता है? इसलिए होता है कि चित्त की शुद्धि नहीं हुई।
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