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ध्यान और परिवार
१२१ 'यह कल्पवृक्ष है। तुम्हें जो भी आवश्यकता हो तो मांग लेना, उसकी प्रार्थना करना। तुम जो चाहोगे, तुम्हें मिल जाएगा।
नारदजी निर्देश देकर चले गए। वह व्यक्ति कल्पवृक्ष की छांव में बैठ गया। उसने सोचा-भूख लग गई। कितना अच्छा हो, खाने को भोजन मिल जाए। सोचने के साथ ही भोजन तैयार था। उसने भोजन कर लिया, सोचा-अब ठण्डा-ठण्डा पानी मिल जाए तो कितना अच्छा हो। पानी भी तैयार। उसने फिर सोचा-कितना अच्छा हो कि शय्या मिल जाए, सुखद फूलों की कोमल-कोमल शय्या। वैसे कोमल शय्या काम की नहीं होती, रीढ़ की हड्डी को बिगाड़ने वाली होती है फिर भी बहत सारे लोग कोमल गद्दों पर सोना चाहते हैं, भले ही रीढ़ की हड्डी की बीमारी को भोगते रहें। जैसे ही उसने सोचा, कोमल-कोमल फूलों की शय्या प्रस्तुत थी। वह सो गया। आदमी को मुंह मांगा मिल जाए तो कहना ही क्या? एक के बाद एक आकांक्षा जागती चली गई। भोजन कर लिया, पानी पी लिया, अच्छी शय्या पर सो रहा हूं। अब कोई पगचम्पी करने वाली अप्सराएं आ जाएं तो बहुत अच्छा हो। सोचने की जरूरत थी, अप्सराएं आई और पगचम्पी करने लग गईं। वे पग दबाती हैं तो बड़ा आराम मिलता है।
सम्पूर्णानन्दजी ने लिखा था-'खाकर सोता हूं तो पहले कुछ होता हूं और जब कोई पग दबाता है तब सम्पूर्णानन्द बन जाता हूं।' वह व्यक्ति सम्पूर्णानन्द बन गया।
वह सोचता है-बहुत अच्छी पगचंपी हो रही है। इतने में मन में एक विकल्प जागा-अरे ! मैंने यह क्या कर लिया। अगर घरवाली आ गई तो जरूर मुझे झाडू लेकर पीटेगी। बस सोचने की देरी थी, घरवाली हाथ में झाडू लिए तैयार थी। उसने झाडू से पीटना शुरू किया। वह शय्या से उठा और भागने लगा। आगे वह भागता जा रहा है
और पीछे घरवाली दौड़ती चली जा रही है। दौड़ते-दौड़ते बहुत दूर चले गए। रास्ते में नारदजी मिल गए।
नारद ने देखा--'अरे! स्वर्ग में यह क्या नाटक हो रहा है? यह तो वह मेरा मित्र लग रहा है। अरे ! रुको। क्यों दौड़ रहे हो? क्या हुआ?'
___ 'आप देखते नहीं, यह कर्कशा पीछे आ रही है। जहां मौका मिलता है झाडू जमा देती है।'
वह झाडू ही था, मूसल नहीं था, बेलन नहीं था। इस सन्दर्भ में एक व्यंग्य याद आ रहा है-ओलम्पिक खेल हो रहे थे। मुक्केबाजी की प्रतियोगिता थी। एक व्यक्ति को बहुत मुक्के जमाए गए। उसने सबको सह लिया और बराबर मैदान में जमा रहा।
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