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पर्यावरण और ध्यान
११३ कि सब पदार्थ मनुष्य के लिए बनाये गये हैं। विश्व का एक बड़ा वर्ग मांसाहारी लोगों का है। जब-जब मांसाहारी लोगों से सम्पर्क होता है, उनसे यह पूछा जाता है-मांस क्यों खाते हो? उत्तर मिलता है-अगर मांस न खाएं तो भगवान ने पशु बनाए ही क्यों? ये पशु-पक्षी मनुष्य के लिए ही तो हैं। जब उन्हें कहा जाता है कि शेर के आने पर तुम भागते क्यों हो? तुमको खाने के लिए ही तो शेर को बनाया गया है। वे इस प्रश्न को सुनकर मौन हो जाते हैं . नष्ट हो रही हैं प्रजातियां
यह गलत धारणा बन गई-मनुष्य इस दुनिया में श्रेष्ठ प्राणी है। सृष्टि के सारे पदार्थ मनुष्य के लिए बनाए गए हैं, उसके उपभोग के लिए बनाये गये हैं। इस आधार पर उपभोक्ता संस्कृति का निर्माण हुआ। आज उपभोक्ता संस्कृति इतनी व्यापक बन गई, यह धारणा इतनी व्यापक हो गई कि सब कुछ मनुष्य के लिए बनाया गया है, मनुष्य चाहे जैसे उसका उपभोग कर सकता है। इस मिथ्या धारणा के कारण आदमी इतना उच्छृखल हो गया कि कहीं भी साधना, संयम जैसी बात उसके सामने नहीं रही। इस उपभोक्तावादी संस्कृति का परिणाम यह आया--मनुष्य ने प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन शुरू कर दिया। प्राकृतिक संसाधन समाप्त किये जा रहे हैं, अनगिनत पशु-पक्षी मारे जा रहे हैं। एक जीव विज्ञानी ने अपने वक्तव्य में कहा-'आज का मनुष्य कैसा बन गया है? वह प्रतिवर्ष हजारों लाखों पशु-पक्षियों को नष्ट कर देता है।' काफी अनुसंधान के बाद उसने यह निष्कर्ष निकाला- 'एक हजार प्रजातियां नष्ट हो रही हैं। आखिर बचेगा क्या? मनुष्य यदि सबको मार डालेगा तो फिर क्या बचेगा? कोरा आदमी बचेगा।'
अध्यापक ने विद्यार्थी से पूछा-एक पेड़ पर बीस चिड़ियां बैठी थीं। शिकारी ने गोली चलाई, एक चिड़िया को मार गिराया। बताओ, पीछे कितनी बची?
उसने कहा-मास्टर साहब ! एक भी नहीं बची? 'कैसे नहीं बची?'
'मास्टर साहब! गोली चलते ही सारी चिड़ियां उड़ गईं तो बचेगी क्या? एक भी नहीं बचेगी।' ज्वलंत प्रश्न
___ पर्यावरण के संदर्भ में आज यही ज्वलंत प्रश्न है, यदि मनुष्य इसी प्रकार प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करता चला जाएगा तो क्या बचेगा? पृथ्वी है, पानी है, अग्नि है, वायु है और सबसे बड़ी बात वनस्पति का जगत् है तो आदमी है। आदमी अकेला जी नहीं सकता। भगवान महावीर ने सत्य का साक्षात्कार किया था और उस
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