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तब होता है ध्यान का जन्म दुर्मुख की बात भीतर तक पहुंच गई। जैसे ही भीतर पहुंची, ध्यान छूट गया और संग्राम शुरू हो गया। न कोई शस्त्र, न कोई सेना, न कोई सामने शत्रु। कुछ भी नहीं, पर अन्तर्जगत् में इतना युद्ध शुरू हो गया कि प्रसन्नचन्द्र ने वहीं शत्रुओं को मारना, काटना, परास्त करना शुरू कर दिया।
यह युद्ध कहां हुआ? संघर्ष कहां हुआ? बाहर जो घटना आती है, वह अन्तर्जगत् की घटना बन आती है। बाहर में मात्र एक अभिव्यक्ति होती है। जो चल रहा है, वह अन्तर्जगत् में चल रहा है। यह ठीक कहा गया-'युद्ध पहले मनुष्य के दिमाग में पैदा होता है, फिर रण-भूमि में लड़ा जाता है।' यह बात बहुत पुरानी है। भगवान महावीर ने भी यही कहा। उन्होंने दस प्रकार के शस्त्र बतलाए। उनमें से एक शस्त्र है-भाव शस्त्र । वह शस्त्र है दिमाग का। चाहे युद्ध करना है, संघर्ष करना है, गाली देना है, लड़ना है, झगड़ना है, सब कुछ पहले भाव में होता है, फिर बाह्य जगत् में आता है। सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण है आंतरिक जगत् को समझना। बाह्य जगत् का परिष्कार कर लिया और अन्तर्जगत् का परिष्कार नहीं किया तो समस्या का समाध गान नहीं हो सकता। चोर को मार दिया पर चोर को पैदा करने वाली शक्तियां अभी जीवित हैं।
प्राचीन कहावत हैं-'चोर की मां जब तक जीवित है, तब तक चोर पैदा होते रहते हैं। इस मूल कारण पर हमारा ध्यान नहीं गया। यह शिक्षा की विडंबना है कि बाह्य जगत् के परिष्कार पर तो बहुत ध्यान दिया गया, जितना देना चाहिए, शायद उससे ज्यादा दिया गया और अन्तर्जगत् के परिष्कार को बिल्कुल उपेक्षित कर दिया। ऐसा लगता है-एक हाथ और एक पैर बीस फूट का बन गया, एक हाथ, एक पैर एक फुट का रह गया। किसी बच्चे को ऐसा बना दिया जाए तो कैसा लगेगा? बीमारी के कारण थोड़ा-सा एक हाथ अथवा पैर छोटा हो जाता है तो भी गति लड़खड़ा जाती है, काम करने की क्षमता कम हो जाती है। यदि इतना असंतुलन पैदा हो जाए तो फिर क्या
होगा?
प्रेक्षाध्यान का लक्ष्य
आज यह असंतुलन पैदा हो रहा है। ध्यान करने का मतलब है आंतरिक जगत् का परिष्कार करना, मस्तिष्क को इतना प्रशिक्षित और परिष्कृत कर देना, जिससे भीतर का मैलापन धुल जाए, भीतर की कालिमा श्वेतिमा में बदल जाए। ईर्ष्या, भय, आवेग, वासना-ये हमारे आभामण्डल को मलिन बनाते हैं। भीतर को अपरिष्कृत करते रहते हैं
और समस्याओं को जन्म देते रहते हैं। ध्यान केवल आंख मूंदकर बैठना नहीं है किन्तु उस मैल का परिष्कार करना है। प्रेक्षाध्यान चित्तशुद्धि के लिए है, शरीरशुद्धि के लिए नहीं है। मन की बात भी बहुत छोटी है। अगर हमारा ध्यान मन तक सीमित रहा तो
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