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ध्यान और मस्तिष्कीय प्रशिक्षण
वस्तु को जानने का एक महत्त्वपूर्ण सिद्धांत है-अनेकान्त। उसका एक महत्त्वपूर्ण प्रयोग है-नयवाद। प्रत्येक वस्तु, चाहे वह बड़ी है या छोटी, परमाणु है यया हाथी, सबमें अनंत धर्म और अनंत पर्याय होते हैं। उन अनंत पर्यायों को जानने के लिए हमारा दृष्टिकोण भी अनंत होना चाहिए। आचार्य सिद्धसेन ने लिखा-'जितने बोलने के प्रकार हैं, उतने ही नय हैं और जितने नय हैं, उतने ही बोलने के प्रकार हैं।'
जावइया वयणपहा तावइया चेव हुंति नयवाया।
जावइया नयवाया तावइया चेव हुति वयणपहा ।। हम किसी एक दृष्टिकोण से किसी एक वस्तु का प्रतिपादन नहीं कर सकते। यह नयवाद का दार्शनिक स्वरूप है। उसका आध्यात्मिक स्वरूप यह है-जितनी हमारी वृत्तियां हैं उतने ही मस्तिष्क में प्रकोष्ठ हैं।
यह मस्तिष्क छोटा-सा लगता है किन्तु है बहुत महत्त्वपूर्ण। मनुष्य का जितना आचरण और व्यवहार है, जितनी वृत्तियां हैं, उन सबके प्रकोष्ठ मस्तिष्क में है। मनुष्या कलह और कदाग्रह करता है, क्रोध और घृणा करता है, ईर्ष्या और लोभ करता है। इना सारी वृत्तियों के प्रकोष्ठ, चाहे वे सौ से अधिक हैं, हमारे मस्तिष्क में हैं। यदि उन कोष्ठों को समझ लिया जाए, बदल दिया जाए तो व्यक्तित्व का रूपांतरण हो सकता है।
ध्यान का एक अर्थ है मस्तिष्कीय प्रकोष्ठों को समझना, प्रयोग के द्वारा उनमें परिवर्तन लाना। दर्शन केन्द्र पर ध्यान का प्रयोग कराया जाता है। उसका एक विशेषा अर्थ है। व्यक्ति इस केन्द्र पर ध्यान के द्वारा अनेक प्रकोष्ठों को जागृत करता है, साक्रिय्य बना देता है और अनेक प्रकोष्ठों को सुला देता है, निष्क्रिय बना देता है। इस केन्द्र का सम्बन्ध काम-वासना से भी है, अन्य वृत्तियों से भी है। दर्शनकेन्द्र से बारह प्रकार के स्राव स्रावित होते हैं। वे स्राव मानव के व्यवहार को प्रभावित करते हैं। यदि उन मादकों को बदलना है तो दर्शनकेन्द्र को पकड़ना होगा। व्यक्ति को क्रोध सताता है। ज्योति- केन्द्र पर ध्यान करें तो क्रोध का प्रकोष्ठ बदलना शुरू हो जाएगा। जो क्रोध के लिए जिम्मेवार
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