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ध्यान कोई जादू नहीं है
७९ तीन प्रकार के व्यक्ति ।
प्रश्न है-इस चेतना का निर्माण कैसे हो सकता है? क्या ऐसी चेतना का निर्माण संभव है? इस समस्या पर विचार करें तो व्यक्तियों को तीन वर्गों में विभक्त करना होगा। एक प्रकार के वे लोग हैं, जो अपने व्यक्तिगत अहं का पोषण करते हैं। दूसरे प्रकार के वे लोग हैं, जो व्यक्तिगत अहं को सामाजिकता और संगठन में विलीन कर देते हैं। तीसरे प्रकार के वे लोग हैं जो अपने व्यक्तिगत अहं को आत्मा या परमात्मा में विलीन कर देते हैं। पहले वर्ग के व्यक्ति केवल व्यक्तिगत अहं का पोषण करते हैं। वे स्वार्थी आदमी होते हैं। ऐसे स्वार्थी लोगों की भीड़ आज के समाज में बहुत ज्यादा है। दूसरी कोटि के वे लोग हैं, जो अपने व्यक्तिगत अहं को सामाजिक विकास या संगठन में विलीन कर देते हैं। ऐसे व्यक्ति नेतृत्व करने के योग्य बनते हैं। वास्तव में ऐसे लोगों का नेतृत्व होना चाहिए, जिससे समाज का विकास हो, संगठन अच्छा चले, समस्याएं पैदा न हों। समाज और राजनीति के क्षेत्र में जो उलझनें आती हैं, उनका एक कारण यह है कि नेतृत्व उन हाथों में है, जिनका व्यक्तिगत अहं प्रखर है। जिन लोगों ने अपने अहं को समाज-विकास, राष्ट्र-विकास या संगठन में विलीन नहीं किया, उनके हाथों में जब समाज या राष्ट्र की बागडोर होती है, तब कलह और कदाग्रह के सिवाय और कुछ नहीं होता। जो अपने अहं को आत्मा या परमात्मा में विलीन कर देते हैं, वे आध्यात्मिक पुरुष या संत होते हैं। तीसरे कोटि के व्यक्ति सर्वश्रेष्ठ होते हैं, किन्तु समाज के लिए दूसरी कोटी के लोगों का उपयोग अधिक है।
व्यक्तिगत अहं की चेतना कैसे सोए? व्यक्तिगत अहं को समाज विकास में लगाने की चेतना कैसे जागे? इसका साधन क्या है? साधन पर विचार करें। चेतना-परिवर्तन और व्यवहार-परिवर्तन-दोनों का साधन है मस्तिष्कीय प्रशिक्षण। मस्तिष्क का प्रशिक्षण हो और वह दीर्घकालीन हो तो ऐसी चेतना का जागरण संभव बन सकता है। इस संदर्भ में तेरापंथ के संगठन को उद्धृत किया जा सकता है। हिन्दी के सुप्रसिद्ध विचारक जैनेन्द्र कुमार ने अपनी विदेश यात्रा के संस्मरण सुनाते हुए कहा-'आचार्यश्री ! मैं विश्व के अनेक देशों की यात्रा करके आया हूं। समाजिक और धार्मिक संगठनों को बहुत निकटता से देखा किन्तु जैसा संगठन तेरापंथ का है, वैसा संगठन कहीं देखने को नहीं मिला।' यह है परम्परा का वैशिष्ट्य
पूज्य गुरुदेव गुजरात यात्रा के दौरान पालनपुर में प्रवास कर रहे थे। एक जैन सम्प्रदाय के आचार्य गुरुदेव से मिले। वार्तालाप के दौरान उन्होंने पूछा-'आचार्यजी! आपके शिष्य कितने हैं?' गुरुदेव ने कहा-'सात सौ से अधिक हैं।'
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