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ध्यान की दिशा बदलने के लिए मिला नहीं। तुम्हें तभी कुछ मिलेगा जब सबसे पहले इन भूमिकाओं को पार करो, दर्शन और रुचि का विश्लेषण करो।
ऐसा लगता है-आज ध्यान को व्यवसाय बना दिया-आओ और सीधे ध्यान में बैठ जाओ। यह व्यवसाय की बात बहुत सार्थक नहीं है इसीलिए ध्यान आज भय का एक हेतु बन गया है। समण रूस और स्वीट्जरलैण्ड गये। एक विद्यालय में प्रेक्षाध्यान के प्रयोग की बात चली। लोग बहुत घबराए। वे इस बात से घबराए-भाई ! बहुत बड़ी फीस देनी होगी। भय का दूसरा कारण यह था-ध्यान तो आज का पाखण्ड है। हम पाखण्ड को पोषण देना नहीं चाहते। जब उनको समझाया गया तब उन्होंने प्रयोग किए। प्रयोग करने के बाद इतना आकर्षण बढ़ा, यह मांग हो गई-एक मास तक हमें प्रयोग कराएं। चेतना आत्मलक्षी बने
जो भी ध्यान करने आते हैं, उन्हें सबसे पहले ध्यान के दर्शन को आत्मसात् करना है। उन्हें संकल्प करना है कि जो चेतना आज तक पदार्थ-लक्षी रही है, उसे आत्म-लक्षी बनाना है। इतनी बात स्पष्ट हो जाए तो ध्यान सही दिशा में आगे बढ़ेगा, विकल्प अपने आप कम होने लग जाएंगे। पदार्थ-लक्षी विचार पदार्थ की दिशा में चलते हैं, पदार्थ-लक्षी चेतना की दिशा में जाते हैं। चेतना आत्म-लक्षी हो गई, पदार्थ-लक्षी विचार आने में अपने आप संकोच करेंगे, वे भीतर नहीं आएंगे। यह दिशा का परिवर्तन बहुत आवश्यक है। आप यह लक्ष्य लेकर ध्यान में बैठेंगे-मुझे आत्मा का साक्षात्कार करना है, चित्त को निर्मल बनाना है तो आपका ध्यान एक दूसरे प्रकार का होगा। यदि केवल इस बात को लेकर ही ध्यान करेंगे-पैरों का दर्द ठीक हो जाए, बीमारी मिट जाए तो दृष्टिकोण पदार्थपरक ही रहेगा, अगर दृष्टिकोण देहपरक रहा तो हम शरीर की चिंता से आगे कभी नहीं बढ़ पाएंगे।
स्कूल का समय हुआ। मां ने बेटे से कहा-जाओ, स्कूल जाओ। बच्चे ने कहा- 'मैं तो नहीं जाता।' 'क्या तुम्हारे पास पुस्तकें और पेंसिल नहीं है?'
'क्या तुम्हारा स्वास्थ्य ठीक नहीं है?' 'स्वास्थ्य भी ठीक है।' 'अरे ! जब तुम्हारे पास सब कुछ है फिर क्यों नहीं जाते?' 'मम्मी ! मैं जाना ही नहीं चाहता।'
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