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तब होता है ध्यान का जन्म
मिटा लेता है। यह सारा परिकर्म है। लम्बा श्वास लो, शरीर को देखो, चैतन्य केन्द्रों को देखो, यह हमारा परिकर्म है। हम इतनी साज-सज्जा कर लेते हैं, इतनी तैयारी कर लेते हैं कि ध्यान में बैठते ही एक मिनट में मन से परे चले जाते हैं। वह हमारी ध्यान की भूमिका होगी। मन की एकाग्रता का परिकर्म अच्छा हो गया तो ध्यान में स्थायित्व आएगा। परिकर्म अच्छा नहीं हुआ है तो स्थायित्व नहीं आएगा।
महाराज रणजीतसिंह राजसभा में बैठे थे। एक अंग्रेज व्यापारी कांच का बढ़िया फूलदान लाया। उसने कहा-'महाराज ! आप यह भेंट स्वीकार करें। मेरे पास ऐसी बहुत सामग्री है, आप उसको खरीदें। ‘बड़े चतुर और विलक्षण थे महाराजा रणजीतसिंह । उन्होंने फूलदान हाथ में लिया और उसे फेंक दिया। वह फूलदान टूट गया। अब उसका मूल्य एक कौड़ी भी नहीं रहा। अंग्रेज देखता रह गया, सब लोग देखते रह गए। सोचाइतना बढ़िया फूलदान था, महाराज ने यह क्या किया? महाराज ने तत्काल अपना फूलदान उठाया। वह पीतल का बना हुआ था। अपने सेवक से कहा-हथोड़ा लाओ। सेवक हथोड़ा ले आया। महाराज ने निर्देश दिया-इस फूलदान को तोड़ो। सेवक ने फूलदान को पीट-पीटकर उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिए। महाराज ने कहा- 'बाजार में जाओ और दोनों के टुकड़े बेचकर आओ। आदमी बाजार गया। उसे कांच के टुकड़ों का कोई मूल्य नहीं मिला। वह पीतल के टुकड़ों को बेचकर मूल्य ले आया।' महाराज रणजीतसिंह बोले-'महाशय ! हम उस चीज को नहीं चाहते, जो एक झटके से टूट जाए, फट जाए और अपना मूल्य खो बैठे। हम ऐसी चीज चाहते हैं, जिसका टूटने पर भी मूल्य समाप्त न हो। पीतल का मूल्य समाप्त कहां होगा? वह बिक जाएगा। हम ऐसी स्थायी वस्तु चाहते हैं, जिसका मूल्य सदा बना रहे।'
यदि हमारी एकाग्रता अच्छी बन जाती है, परिकर्म अच्छा हो जाता है तो ध्यान में स्थायित्व आएगा। अन्यथा कांच के फूलदान की तरह टूट-फूट कर वह अपना मूल्य गंवा देगा। ध्यान शिविर में ध्यान किया और घर जाकर भुला दिया तो स्थायित्व नहीं आएगा।
गुरु का उपदेश, श्रद्धा, अभ्यास और मन की एकाग्रता ध्यान की गहराई में जाने के लिए इन चारों तत्त्वों का पर्यालोचन और अनुशीलन आवश्यक है। ध्यान की सिद्धि का पथ यही है।
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