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ध्यान का प्रारम्भ कहां से करें?
की ओर उन्मुख हो जाएगी। ध्यान में एक विचार का आलम्बन लिया और वह एक गुण तक टिक गया, बीच में कोई दूसरा विकल्प, विचार नहीं उभरा तो मान लें, पहली यात्रा सध गई। फिर दो मिनट, तीन मिनट.......... इस प्रकार एक व्यवस्थित क्रम से आगे बढ़ा जा सकता है, अभ्यास को परिपक्व बनाया जा सकता है। यदि व्यवस्थित प्रक्रिया से न चलें तो विकास होना कठिन हो जाएगा, परिवर्तन भी कठिन बन जाएगा।
हमें बदलना है व्यवहार को। ध्यान में बैठ गए, शरीर को देखा, श्वास को देखा, इससे स्वभाव में इतना परिवर्तन नहीं होगा, जितना होना चाहिए। परिवर्तन तब संभव होगा जब विचार को बदलने का संकल्प करें, उस विचार को बंद आंखों के सामने रखें, उस पर एकाग्रता सधती चली जाए। निश्चित मानें-एकाग्रता की मात्रा जैसे-जैसे बढ़ेगी, आदत की मात्रा घटती चली जाएगी। इधर ध्यान का विकास और उधर आदत का परिवर्तन-दोनों साथ-साथ चलेंगे। आदत बदलने के लिए यह विचार-ध्यान, श्रुत-ध्यान बहुत उपयोगी है। पंचतंत्र : निर्माण की कहानी
__यह आग्रह नहीं होना चाहिए-हम स्वाध्याय न करें, पढ़ें नहीं। बहुत आवश्यक है पढ़ना और स्वाध्याय करना । उसके बिना आप कैसे विकास कर पाएंगे? कोई उपाय भी नहीं है। स्वाध्याय के प्रति आकर्षण पैदा हो जाए, इस पर ध्यान केन्द्रित होना चाहिए। बच्चों को शिक्षा दी जाती है कहानियों के माध्यम से। संस्कृत का एक प्रसिद्ध ग्रंथ है पंचतंत्र। वह क्यों बना? राजा के पुत्र पढ़ने में रुचि नहीं लेते थे। कोई भी अध्यापक आता, उसे निकाल देते, उसका अनुशासन नहीं मानते। राजा बड़ा चिंतित हो गया। ऐसे लड़के जन्मे हैं, राज्य कैसे चलेगा? कौन चलाएगा? ये सब उत्तराधिकारी हैं। ऐसे मूर्ख बने रहेंगे तो राज्य का क्या होगा? उसने विद्वानों की खोज शुरू की। कोई ऐसा विद्वान आए, जो मेरे पुत्रों को पढ़ा दे। विद्वान राजा के पुत्रों को पढ़ाने को अपना सौभाग्य मामकर आते हैं किन्तु टिक नहीं पाते। राजा की चिंता और बढ़ गई। आखिर एक विद्वान आया विष्णुशर्मा। वह केवल विद्वान ही नहीं था, अनुभवी भी था। केवल पढ़ा-लिखा नहीं था, कोरा श्रुतज्ञान ही विकसित नहीं था, साथ में मतिज्ञान भी विकसित था। मतिज्ञान का विकास नहीं होता है तो श्रुतज्ञान भी भार बन जाता है। व्यक्ति ने बहुत शास्त्र पढ़ लिए किन्तु उसका मतिज्ञान जागृत नहीं है तो शास्त्र भी उसके लिए शस्त्र बन जाता है। विष्णुशर्मा अनुभवी था। उसने कहा-महाराज! मैं पढ़ाऊंगा। राजा ने पुत्रों को सौंप दिया। उसने अपनी योजना बना ली। उसने पहले दिन कोई पाठ नहीं पढ़ाया, कोई लम्बा-चौड़ा सिद्धांत प्रस्तुत नहीं किया। एक कहानी कही। कहानी में राजपुत्रों का मन लग गया। राजकुमार बोले-गुरुजी! दूसरी कहानी और कहो। विष्णुशर्मा ने दूसरी कहानी कही, तीसरी कहानी कही। राजपुत्रों को कहानियों के माध्यम से
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