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ध्यान का परिवार
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करूं। मैंने कहा- साधना काल में नहीं करोगे तो फिर कब करोगे ? हम लोग यह जानते हैं महावीर ने इतनी बड़ी-बड़ी तपस्याएं कीं। दो दिन के उपवास से लेकर छह मास की तपस्या की । एक दिन का उपवास किया ही नहीं। उन्होंने कम से कम बेला - दो दिन का उपवास किया और अधिक से अधिक छह माह का उपवास किया। हमने इस तपस्या को पकड़ लिया किन्तु जिस ध्यान के लिए तपस्या की थी, उसको छोड़ दिया । तपस्या के लिए तपस्या नहीं थी, तपस्या ध्यान के लिए थी । अगर दस दिन ध्यान करना है तो दस दिन खाएगा कैसे? अपने आप तपस्या होगी । आज एकांगी पकड़ हो गई। ध्यान छूट गया, तपस्या मुख्य हो गई। आचार्य ने ठीक लिखा- ध्यानस्येव तपोयोगाः, शेषा: परिकरा: मता:- जितना तपोयोग है, वह सारा ध्यान का परिवार है इसलिए ध्यानयोग सदा करना चाहिए, दूसरे अपने आप सधेंगे ।
सर्वागीण विकास हो
हम पूरी बात को पकड़ें। एक को लें, एक को छोड़ें, ऐसा न करें । प्रेक्षाध्यान में आसन और प्राणायाम का प्रयोग भी होता है, तपस्या और आहार का संयम भी होता । स्वाध्याय भी एक सीमा तक चलता है। अनुप्रेक्षा और ध्यान का प्रयोग चलता है कुल मिलाकर साधना का एक सर्वांगीण रूप चलता है । हमारी साधना सर्वांगीण हो, एकांगी न हो। ऐसा न हो कि एक हाथ दस हाथ जितना लम्बा हो जाए, दीवार को छू ले और दूसरा हाथ यहीं रह जाए। पैर तो इतने बढ़ जाएं कि पाताल को छुएं और ऊपर का हिस्सा इतना छोटा-सा रह जाए कि उपहास का पात्र बन जाए। ऐसा एकांगी विकास न हो, सर्वांगीण विकास हो, सब अवयव एक साथ बढ़ें। हम समग्र दृष्टि से विकास करें। समग्र विकास का अर्थ है- ध्यान को और उसके परिवार के सब सदस्यों को एक साथ आमंत्रित करें, सबका सर्वांगीण प्रयोग चले, जिससे द्वन्द्वों को सहन करने की शक्ति भी जागे, हम प्रकाश के आवरण को भी दूर कर सकें, जो मोह, ममता, माया का मैल जमा हुआ है, अनुप्रेक्षा के द्वारा उसका प्रक्षालन भी करें, ध्यान के द्वारा भीतर की सचाइयों को भी देख सकें । इस स्थिति के निर्माण के लिए आवश्यक है कि हमारा दृष्टिकोण व्यापक बने । जब तक मूल दृष्टि ठीक नहीं होती तब तक कुछ भी ठीक नहीं होता ।
एक आदमी ने डॉक्टर से कहा- डॉक्टर साहब! आंख दिखानी है । डॉक्टर ने उसे कुर्सी पर बिठा दिया । सामने दीवार पर वस्त्र-पट पड़ा था। उस पट पर अंक लिखे थे। डॉक्टर ने कहा- देखो, पट पर अक्षर देखो
हुए
'अक्षर कहां है?'
'उस पट पर।
'पट कहां है?'
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