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द्वितीय आवृत्ति ।
" आधुनिक जैनलेखकों द्वारा लिखे गये ग्रंथोंका जनतामें चाहिए वैसा आदर नहीं होता " जैन समाजमें यह बात प्रायः लोग कहा करते है । मगर किसी लेखकने इस बातकी खोज न की कि, ऐसा होता क्यों है ? यह कहा जाता है कि जैनेतर लोग पक्षपातके कारण, आदर नहीं करते; यह भी सही है मगर यह भी मिथ्या नहीं है कि, जैनलेखकोंकी लेखनपद्धति-एकान्त धार्मिक विषयकी ही पुष्टि, या 'पुराना वह सभी सत्य बतानेकी पद्धति-भी इसका एक खास कारण है। किसी बातको प्रमाणोंद्वारा पुष्ट न करके “ दो सौ वरस पहले अमुक बात हुई थी " " अमुकने ऐसा किया था। इस लिए उसको मानना ही चाहिए, हमें भी करनाही चाहिए; इस तरहका आग्रह यदि जनताको आकर्षित न कर सके तो इसमें आश्चर्यकी मात ही कौनसी है !
मैंने इस बातको ध्यानमें रख कर ही यह ग्रंथ लिखा था और इसी लिए प्रथम संस्करणकी भूमिकामें मैंने लिखा था कि,
" इस ग्रंथको लिखने हरेक बातकी सचाई इतिहास द्वारा प्रमाणित करनेहीका प्रयत्न किया गया है। इसी लिए, हीरविजयसरिसे संबंध रखनेवाली कई बाते-जो केवल किंवदन्तियोंके आधार पर कुछ लेखकोंने लिखी है-इस ग्रंयमें छोड़ दी गई हैं। मैंने इसमें मुख्यतया केवल उन्हीं बातोंका उल्लेख किया हैं जिन्हें जैन लेखकोंके साथही जैनेतर लेखकोंने भी एक या दूसरे रूपमें स्वीकार किया है ।
मुझे यह लिखते हर्ष होता है कि, मेरी इस मनोवृत्ति और धारणाके अनुसार लिये गये इस क्षुद्र प्रयत्नका जनताने अच्छा
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