Book Title: Sthananga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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श्री स्थानांग सूत्र 000000000000000000000000000000000000000000000000000
२. शुद्धषणिक - शुद्ध अर्थात् शंकितादि दोष वर्जित निर्दोष एषणा अथवा संसृष्टादि सात प्रकार की या और किसी एषणा द्वारा आहार की गवेषणा करने वाला साधु शुद्धषणिक कहा जाता है।
३. संख्या दत्तिक - दत्ति (दात) की संख्या का परिमाण करके आहार लेने वाला साधु संख्या दत्तिक कहा जाता है। (साधु के पात्र में धार टूटे बिना एक बार में जितनी भिक्षा आ जाय वह दत्ति यानि दात कहलाती है।)
४. दृष्टलाभिक - देखे हुए आहार की ही गवेषणा करने वाला साधु दृष्ट लाभिक कहलाता है।
५. पृष्ट लाभिक-'हे मुनिराज ! क्या आपको मैं आहार दूं?' इस प्रकार पूछने वाले दाता से ही आहार की गवेषणा करने वाला साधु पृष्ट लाभिक कहलाता है। ये भी अभिग्रह धारी साधु के पाँच प्रकार हैं।
भगवान् महावीर से उपदिष्ट एवं अनुमत पांच स्थान - १. आचाम्लिक २. निर्विकृतिक ३. पूर्वार्द्धक ४. परिमित पिण्डपातिक ५. भिन्न पिण्डपातिक।
१. आचाम्लिक (आयंबिलिए) - आचाम्ल (आयंबिल) तप करने वाला साधु आचाम्लिक कहलाता है।
२. निर्विकृतिक (णिव्वियते) - घी आदि विगय का त्याग करने वाला साधु निर्विकृतिक . कहलाता है।
३. पूर्वाद्धिक (पुरिमड्डी) - पुरिमट्ट अर्थात् प्रथम दो पहर तक का प्रत्याख्यान करने वाला साधु पूर्दिक कहा जाता है।
४. परिमित पिण्डपातिक - द्रव्यादि का परिमाण करके परिमित आहार लेने वाला साधु परिमित पिण्डपातिक कहलाता है।
५. भिन्न पिण्डपातिक - पूरी वस्तु न लेकर टुकड़े की हुई वस्तु को ही लेने वाला साधु भिन्न पिण्डपातिक कहलाता है।
भगवान् महावीर से उपदिष्ट एवं अनुमत पांच स्थान - १. अरसाहार २. विरसाहार ३. अन्ताहार ४. प्रान्ताहार ५. रूक्षाहार।
१. अरसाहार- हींग आदि के बघार से रहित नीरस आहार करने वाला साधु अरसाहार कहलाता है।
२. विरसाहार - विगत रस अर्थात् रस रहित पुराने धान्य आदि का आहार करने वाला साधु विरसाहार कहलाता है।
३. अन्ताहार - भोजन के बाद अवशिष्ट रही हुई वस्तु का आहार करने वाला साधु अन्ताहार कहलाता है।
४. प्रान्ताहार - तुच्छ, हल्का या बासी आहार करने वाला साधु प्रान्ताहार कहलाता है।
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