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सागारधर्मामृत शलाकयेवाप्तगिराप्तसूत्रप्रवेशमार्गों मणिवच्च यः स्यात् ।
होनोऽपि रुच्या रुचिमत्सु तद्वद् भायादसौ सांव्यवहारिकाणाम् ॥१० न्यायोपात्तघनो, यजत्गुणगुरून्, सद्गीस्त्रिवर्ग भजन्नन्योन्यानुगुणं, तदर्हगृहिणी-स्थानालयो ह्रीमयः। युक्ताहारविहार आर्यसमितिः, प्राज्ञः कृतज्ञो वशी, शृण्वन्धर्मविधि,दयालुरघभीः,सागारधर्म चरेत्११
सम्यक्त्वममलममलान्यणुगुणशिक्षाक्तानि मरणान्ते।
सल्लेखना च विधिना पूर्णः सागारधर्मोऽयम् ॥१२ भूरेखादिसदृक्कषायवशगो यो विश्वदृश्वाज्ञया हेयं वैषयिकं सुखं निजमुपादेयं त्विति श्रद्दधत् । चौरो मारयितुं धृतस्तलवरेणवात्मनिन्दादिमान् शर्माक्षं भजते रुजत्यपि परं नोत्तप्यते सोऽप्यघैः ॥१३
धर्मं यशः शर्म च सेवमानाः केऽप्येकशो जन्म विदुः कृतार्थम् । अन्ये द्विशो विद्म वयं त्वमोघान्यहानि यान्ति त्रयसेवयैव ॥१४
__ यदि वज्रकी सुईके द्वारा छिद्र करके कान्तिहीन भी मणि कान्तिमान् मणियोंकी मालामें पिरो दिया जावे तो उस समय वह कान्तिमान् मणियोंके सम्बन्धसे दर्शकोंको कान्तिमान् मणिकी तरह मालूम होता है। उसी प्रकार सद्गुरुके वचनों द्वारा परमागमके जानने में उपायभूत सुश्रूषादिगुणोंको प्राप्त होनेवाला भद्र मिथ्यादृष्टि जीव यद्यपि अन्तरङ्गमें मिथ्यात्व कर्मके सद्भावके कारण यथार्थ श्रद्धानसे रहित भी हो तथापि बाह्यमें सम्यग्दृष्टि जीवके समान ही उसमें परमागमके सुननेकी इच्छा आदि गुणोंके पाये जानेसे वह भद्र मियादृष्टि जीव व्यवहारके ज्ञाता पुरुषोंको सम्यग्दृष्टि पुरुषोंके मध्यमें सम्यग्दृष्टिके समान मालूम होता है ॥१०॥ न्यायसे धन कमाना, गुणों, गुरुओं तथा गुणगुरुओंकी पूजा करना, प्रशस्त वचन बोलना, निर्बाध त्रिवर्गका सेवन, त्रिवर्गयोग्य स्त्री, ग्राम व मकान, उचित लज्जा, योग्य भोजन और विहार, सत्संगति, विवेक, उपकारस्मृति, जितेन्द्रियता, धर्मश्रवण, दयालुता और पापभीति इन चौदह गुणोंमेंसे अधिकांश या समस्त गुणोंको धारण करनेवाला प्राणी ही सागारधर्मको धारण करनेका अधिकारी है ॥११॥ पच्चीस दोषरहित सम्यक्त्व, पाँच-पाँच अतिचार रहित बारह व्रत और मरणसमयमें विधिपूर्वक सल्लेखना यह सब श्रावकका सम्पूर्ण धर्म है ॥१२॥ जैसे कोतवालके द्वारा मारनेके लिये पकड़ा गया चोर गधे पर चढ़ाना, काला मुंह कराना आदि जो जो कार्य कोतवाल कराता है उन सबको अयोग्य जानता हुआ भी करता है, परन्तु अपनी दुर्दशासे या हार्दिक भावनासे जब वह अपनो चोरीको बुरा समझता है और अपनी करामातको बुरा समझ कर अपनी निन्दा करता है, तब वह या तो दण्डसे छुटकारा ही पा जाता है या अल्पदण्डका भागी होता है। उसी प्रकार पृथ्वीरेखा आदिके समान अप्रत्याख्यानावरण-क्रोधादिकके वशीभूत व्यक्ति भावहिंसा और द्रव्यहिंसा आदि जो जो कार्य चारित्रमोह कराता है, उन सबको अयोग्य जानता हआ भी अपने समय पर उदयमें आनेवाले कर्मोकी दुनिवारतासे करता है परन्तु सर्वज्ञदेवके उपदेशकी यथार्थताके अतिदृढ़ विश्वाससे वह स्त्री आदिक विषयोंसे उत्पन्न सुखको विनाशीक तथा आत्मोत्पन्न सुखको ग्राह्य समझता है। तथा "हाथमें दीपक रहते हुए अन्धकूपमें गिरने वाले मुझको धिक्कार है।" इस प्रकार अपनी निन्दा और गर्दा करता है। ऐसा अविरतसम्यग्दृष्टि जीव यद्यपि इन्द्रियोत्पन्न सुखोंको भोगता है तथा त्रस स्थावर जीवोंकी हिंसा करता है, तथापि वह जिन संक्लेश परिणामोंसे नरकादि अशुभ गतियोंका बन्ध होता है, उन संक्लेश परिणामोंसे युक्त नहीं होता ॥१३॥
लोगोंकी रुचि विभिन्न होती है, एक सी नहीं । इसलिये इस संसारमें कोई पुरुष तो धर्म
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