Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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कराई । यह कार्य सन् १९१६ से १९२३ तक संपन्न हुआ । सन् १९२४ में सहारनपुरवालोंने मूडविद्रोके पं. लोकनाथ जी शास्त्रीको बुलाकर उनसे कनाडी और नागरी लिपियोंका मिलान करा लिया ।
सहारनपुरकी कनाडी प्रतिकी नागरी लिपि करते समय पं. सीताराम शास्त्रीने एक और कापी कर ली और उसे अपने ही पास रख लिया, यह लाला प्रद्युम्नकुमारजी रईस, सहारनपुर, की सूचनासे ज्ञात हुआ है। पर यह भी सुना जाता है कि जिस समय पं. विजयचंद्रय्या और पं. सीताराम शास्त्री कनाडीकी नागरी प्रतिलिपि करने बैठे उस समय पं. विजयचंद्रय्या पढ़ते जाते थे और पं. सीताराम शास्त्री सुविधा और जल्दीके लिये कागजके खरीपर नागरीमें लिखते जाते थे । इन्हीं खरोंपरसे उन्होंने पीछे शास्त्राकार प्रति सावधानीसे लिखकर लालाजीको देदी, किंतु उन खरोंको अपने पास ही रख लिया, और उन्हीं खरोंपरसे पीछे सीताराम शास्त्रीने अनेक स्थानोंपर धवल जयधवल की लिपियां कर के दी। वे ही तथाउन परसे की गई प्रतियां अब अमरावती, आरा, कारंजा, दिल्ली, बम्बई, सोलापुर, सागर, झालरापाटन, इन्दौर, सिवनी, ब्यावर, और अजमेरमें विराजमान हैं।
पं. गजपति उपाध्याय तथा पं. सीताराम शास्त्रीने चाहे जिस भावनासे उक्त कार्य किया हो और भले ही नीतिकी कसौटी पर वह कार्य ठीक न उतरता हो, किंतु इन महान् सिद्धान्त ग्रंथोंको सैकडों वर्षों के कैदसे मुक्त करके विद्वत् और जिज्ञासु संसारका महान् उपकार करनेका श्रेय भी उन्हींको है । इस प्रसंगमें मुझे गुमानी कविका निम्न पद्य याद आता है
पूर्वजशुद्धिमिषाद् भुवि गंगा प्रापितवान् स भगीरथभूपः । वन्धुरभूज्जगतः परमोऽसौ सज्जन है सबका उपकारी ॥
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