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सारसमुच्चय नुभवरूप है उसकी उन्नतिपर उद्यमशील रहे । जो मानव आत्माको शुद्ध करनेका साधन करता है वही नरजन्मके समस्त फलको पाता है।
ज्ञानध्यानोपवासैश्च परीषहजयैस्तथा ।
शीलसंयमयोगैश्च स्वात्मानं भावयेत् सदा ॥८॥ अन्वयार्थ-(ज्ञानध्यानोपवासैश्च) शास्त्रज्ञान, आत्मध्यान तथा उपवास करते हुए (परीषहजयैः तथा) तथा क्षुधा, तृषा आदि परीषहोंको जीतते हुए (शीलसंयमयोगैश्च) शील, संयम तथा योगाभ्यासके साथ (सदा) निरन्तर (स्वात्मानं) अपने आत्माकी (भावयेत्) भावना करे ।
भावार्थ-आत्महितके लिए उचित है कि अपने आत्माके मूल शुद्ध स्वरूपका बारबार मनन या अनुभव किया जावे। इस कार्यके लिए शास्त्रअभ्यास और ध्यान तथा इंद्रियोंपर विजय प्राप्त करनेके लिए एवं शारीरिक व मानसिक विकारोंके शमनके लिए उपवासकी आवश्यकता है। ध्यान करते हुए यदि क्षुधा, तृषा, डांस, मच्छर, शीतादि परीषह सहना पड़े तो शांतिसे सहना चाहिए । अपने स्वभावको शीलवान, शांत, मंदकषायी रखना चाहिए तथा अहिंसादि पंचप्रकार चारित्रको पालना चाहिए । इन्द्रिय व मनपर पूर्ण संयम रखना चाहिए तथा नाना प्रकारके आसनोंसे स्थिर होकर योगाभ्यास करना चाहिए। आत्माका मूल स्वभाव परम शुद्ध वीतराग ज्ञानानंदमय अमूर्तिक है । सिद्धोऽहं -शुद्धोऽहं इस प्रकारकी भावना करनी चाहिए।
ज्ञानाभ्यासः सदा कार्यो ध्याने चाध्ययने तथा।
'तपसो रक्षणं चैव यदीच्छेद्धितमात्मनः॥९॥ अन्वयार्थ-(यदि) यदि (आत्मनः हितं) आत्माका भला (इच्छेत्) चाहते हो तो (ध्याने) ध्यानमें (तथा च अध्ययने) और शास्त्र पढ़नेमें (ज्ञानाभ्यासः) ज्ञानका अभ्यास (सदा) निरंतर (कार्यः) करते रहो (च तपसः रक्षणं एव) और साथ ही तपकी रक्षा भी करो। ___ भावार्थ-आत्मज्ञानका अभ्यास ही आत्माके लिए परम हितकारी है। जब तक एकाग्र मन होकर ध्यान हो सके तब तक ध्यानके द्वारा ज्ञानाभ्यास करे, जब ध्यानमें मन न लगे तब आध्यात्मिक शास्त्रोंको मुख्यतासे पढ़े । उपवास, ऊनोदर आदि बारह प्रकार तपोंका भी साधन करता रहे, जिससे इन्द्रिय व मन अपने वशमें रहें एवं कषायोंका शमन रहे और कष्ट सहनेका अभ्यास जमे ।
पाठान्तर-१. तपःसंरक्षणं ।
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