________________
१४४
सारसमुच्चय
निर्धन हो या धनी हो, भोगरोगसे पीड़ित सब दुःखी हैं । इन्द्र, चक्रवर्ती, देव, राजा तो पुण्यशाली माने जाते हैं । वे दीर्घकाल तक मनवांछित इन्द्रियोंके भोग करते हैं फिर भी उनका मन कभी तृप्त नहीं होता है । जैसे समुद्र नदीसे व अग्नि ईंधनसे तृप्त नहीं होती है वैसे ही यह मन विषयोंके भोगसे तृप्त नहीं होगा ।
I
आत्मा ही सच्चा तीर्थ है
आत्मा वै सुमहत्तीर्थं यदासौ प्रशमे स्थितः । 'यदासौ प्रशमो नास्ति ततस्तीर्थं निरर्थकम् ॥ ३११॥
अन्वयार्थ - (यदा आत्मा प्रशमे स्थितः असौ सुमहत् तीर्थं) जिस समय आत्मा शांतभावमें स्थिर हो जाता है वही महान तीर्थ है (यदा असौ प्रशमे नास्ति ) और जब यह आत्मा शान्तभावमें नहीं है ( ततः तीर्थं निरर्थकम् ) तब तीर्थयात्रा निरर्थक है ।
भावार्थ- जो संसारसे तारे, पार उतारे उसे ही तीर्थ कहते हैं । संसारतारक एक आत्माका अनुभव है, जहाँ निश्चय सम्यग्दर्शन, निश्चय सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र तीनोंकी एकता हो रही है । आत्मानुभवके समयमें आत्मा शान्त होता है यही दशा सच्चा मोक्षमार्ग है । इस आत्ममननको जागृत करनेके लिए तथा शांत भावोंकी प्राप्तिके लिए जो तीर्थयात्रा श्री सम्मेदशिखर, गिरनार आदि तीर्थस्थानोंकी करता है वह यात्रा सफल है, सार्थक है, परन्तु जिसको आत्मभावनाकी ओर लक्ष्य नहीं है, केवल लौकिक समझकर तीर्थस्थानोंमें जायेगा, उसको मोक्षमार्गका लाभ न होगा इसलिए उसकी यात्रा निरर्थक है । केवल कुछ पुण्य बाँध लेगा - मोक्षकी सिद्धि वह कदापि नहीं कर सकेगा ।
जलस्नानसे आत्म-शुद्धि नहीं
शीलव्रतजले स्नातुं शुद्धिरस्य शरीरिणः ।
न तु स्नातस्य तीर्थेषु सर्वेष्वपि महीतले ॥ ३१२॥
अन्वयार्थ- (शीलव्रतजले स्नातु अस्य शरीरिणः शुद्धिः) शील- रूपी जलके भीतर स्नान करनेसे इस प्राणीकी शुद्धि हो सकती है । ( महीतले सर्वेषु तीर्थेषु अपि स्नातस्य न तु ) किन्तु इस पृथ्वीमें सर्व ही नदियोंमें स्नान करनेसे भी कदापि शुद्धि नहीं हो सकती ।
पाठान्तर- १. अथास्य ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org