Book Title: Sara Samucchaya
Author(s): Kulbhadracharya, Shitalprasad
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 165
________________ १४८ सारसमुच्चय पापरहित वचन बोलो निरवद्यं वदेद्वाक्यं मधुरं हितमर्थवत् । प्राणिनां चेतसोऽह्लादि मिथ्यावादबहिष्कृतम् ॥३२०॥ अन्वयार्थ-(वाक्यं निरवद्यं मधुरं हितं अर्थवत् प्राणिनां चेतसः आह्लादि मिथ्यावादबहिष्कृतम् वदेत्) वचन ऐसा बोलना चाहिए जो पापगर्भित न हो, मीठा हो, हितकारी हो, अर्थ सहित हो, प्राणियोंके चित्तको प्रसन्न करनेवाला हो तथा मिथ्यावादसे रहित हो। भावार्थ-वचनोंके कारण जगतसे प्रेम या जगतसे द्वेष हो जाता है। इसलिए द्वेषोत्पादक हिंसाकारी पीडाकारी कटुक वचन न कहकर ज्ञानीको ऐसे वचन बोलने चाहिएँ मानो अमृत ही पिला रहे हैं। जो वचन सार्थक हितकारी व मीठा होता है वही वचन बोलना उचित है। झूठ कभी नहीं बोलना चाहिए। प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वे तुष्यंति जन्तवः । तस्मात्तदेव वक्तव्यं किं वाक्येऽपि दरिद्रता ॥३२१॥ अन्वयार्थ-(प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वे जन्तवः तुष्यन्ति) मिष्ट वचन बोलनेसे सर्व प्राणी प्रसन्न रहते हैं (तस्मात् तत् एव वक्तव्यं) इसलिए ऐसा ही प्रिय वचन बोलना योग्य है । (वाक्येऽपि दरिद्रता किं) वचनोंको मधुरतासे कहने में क्यों दरिद्रता होनी चाहिए अर्थात् नहीं होनी चाहिए। भावार्थ-जगतमें शब्दोंकी कमी नहीं है । बुद्धिमान सज्जनको उचित है कि मीठे वचन लोगोंसे बोले । मिष्ट वचन कहना मानो अमृतका पिलाना है। अप्रिय कठोर शब्दोंको काममें न ले । सर्व शब्द कोमल हितकारी होने चाहिए। संसार-दुःखके क्षयका उपाय व्रतं शीलतपोदानं संयमोऽर्हत्पूजनम् । दुःखविच्छित्तये सर्वं प्रोक्तमतन्न संशयः ॥३२२॥ अन्वयार्थ-(दुःखविच्छित्तये) संसारके दुःखोंका नाश करनेके लिए (व्रतं शीलतपोदानं संयमः अर्हतपूजनम् एतत् सर्वं प्रोक्तं न संशयः) मुनिव्रत या श्रावकव्रत, ब्रह्मचर्य, १२ प्रकार तप, चार प्रकार दान, संयम तथा अर्हन्तका पूजन ये सब उपाय कहे गये है। इसमें संशय न रखना चाहिए। भावार्थ-जो इस जन्मके व आगामी दुःखोंसे बचना चाहें उनको अपनी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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