Book Title: Sara Samucchaya
Author(s): Kulbhadracharya, Shitalprasad
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 169
________________ १५२ सारसमुच्चय साधुजनोंके संगमें, रहा धर्म रस चाख । ग्रंथ लिखनमें कालको, सफल किया हित राख ॥११॥ श्री कुलभद्र महान हैं, ज्ञाता श्रुत आधीश । सारसमुच्चय ग्रंथको, लिखा परम गुणईश ॥१२॥ तिसकी भाषा वचनिका, हुई गुरु परसाद । पढो पढावो भव्यजन, पावो आत्मप्रसाद ॥१३॥ सफल करो नरजन्मको, जैनधर्म रस लेय । हो पवित्र यह आतमा, कर्म संग तज देय ॥१४॥ भादों सुदि दोयज दिना, शनीवार दुखहार । संवत उन्निस बानवे, टीका लिखी उदार ॥१५॥ भूलचूक कुछ होय तो, विद्वजन अरदास । क्षमा करो शोधो सही, कहे सुखोदधि दास ॥१६॥ सत्तावन वय धारता सीतल जिनका दास । पूर्ण आयु तक धर्म जिन, करूँ हृदय पुटवास ॥१७॥ म इति श्रीमद् कुलभद्राचार्यविरचित संसारसमुच्चय ग्रन्थ समाप्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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