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मनुष्य-जन्मकी सफलता गुरुकी सेवासे है, (एषः सनातनः शुद्धिः) यह अनादिकालकी अर्थात् सनातन शुद्धि है।
भावार्थ-हमारे पास मन वचन काय हैं, उनकी शुद्धिका उपाय यह है कि हम मनमें तत्त्वज्ञानका विचार करें, मन पवित्र होगा । वचनोंसे सत्य, शास्त्रोक्त, हितकारी वचन बोलें, इससे वचनकी शुद्धि बनी रहती है। कायकी शुद्धि गुरुकी सेवासे या दुःखी थके हुए धर्मात्माओंकी सेवासे होती है । जिनका मन वचन काय इस तरह शुद्ध रहता है वे ही मानव महात्मा हैं व पवित्र हैं।
मनुष्य-जन्मकी सफलता स्वर्गमोक्षोचितं नृत्वं मूढैर्विषयलालसैः ।
कृतं स्वल्पसुखस्यार्थं तिर्यङ्नरकभाजनम् ॥३१८॥ अन्वयार्थ-(विषयलालसैः मूढः) विषयोंके लम्पटी मूर्ख लोगोंने (स्वर्गमोक्षोचितं नृत्वं) इस मनुष्य जन्मको जिससे स्वर्ग तथा मोक्षकी सिद्धि की जा सकती है (स्वल्पसुखस्यार्थ) अल्प इन्द्रियसुखके अर्थ खोकर (तिर्यङ्नरकभाजनम् कृतं) अपनेको तिर्यंचगति व नरक गतिमें जानेके योग्य कर लिया ।
भावार्थ-यह मनुष्य-जन्म बड़ा ही दुर्लभ है । उसको पाकर ऐसा यत्न करना चाहिए जो जन्म-मरणसे रहित मोक्षका लाभ हो जावे । यदि कदाचित् मोक्ष न प्राप्त हो तो स्वर्ग तो अवश्य प्राप्त हो जावे । यह तब ही हो सकता है जब जैनधर्मका श्रद्धापूर्वक साधन किया जावे । जो इस बातको भूलकर विषयभोगोंमें फँस जाते हैं वे मरकर दुर्गतिमें चले जाते हैं ।
सामग्री प्राप्य सम्पूर्णा यो विजेतुं निरुद्यमः ।
विषयारिमहासैन्यं तस्य जन्म निरर्थकम् ॥३१९॥ अन्वयार्थ-(सम्पूर्णा सामग्री प्राप्य) सब अनुकूल सामग्रीको पाकर (यः विषयारिमहासैन्यं विजेतुं निरुद्यमः) जो विषयरूपी शत्रुकी सेनाको जीतनेका उद्यम नहीं करता है (तस्य जन्म निरर्थकम्) उसका संसारमें जन्म व्यर्थ है। __ भावार्थ-मनुष्य-जन्म, इन्द्रियोंकी पूर्णता, दीर्घायु, लोकमान्य कुल, उत्तम जिनधर्मकी संगति, निराकुल आजीविका इत्यादि सब अनुकूल साधन पाकर भी जो इन्द्रियोंके विषयोंके मोहमें फँस जावे और इन विषयोंको शत्रु समझकर उनके जीतनेका प्रयत्न न करे तो उस मानवका जन्म व्यर्थ ही हुआ । नरदेह पानेका फल यही है जो आत्माके वैरी विषयकषायोंको जीता जावे, जिससे शीघ्र ही संसारका भ्रमण दूर हो ।
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