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तत्त्वज्ञानका स्नान सच्चा स्नान है
१४५ भावार्थ-आत्माका कर्मोंसे छूटना व रागद्वेष भावोंसे छूटना यहीं प्रयोजन है। उसकी सिद्धि नदियोंके स्नानसे कदापि नहीं हो सकती (नदीस्नान तो हिंसाका कारण है) किन्तु शुद्धि शीलव्रत पालनेसे होगी । अन्तरंग शीलव्रत कषायोंको मंद करके शांतभावजन्य ब्रह्मरूपी आत्मामें रमणता है, बाहरी ब्रह्मचर्यमें मैथुनका त्याग है । जिससे आत्मा शांतरसमें नित्य गोते खाता है वह नित्य आत्मगंगामें स्नान कर रहा है। यही सच्चा स्नान हैं जो कर्ममल धोता है। अनेक नदियोंमें स्नान करनेसे आत्माकी शुद्धि कर्मोंसे कदापि हो नहीं सकती है। उनसे तो हिंसाके कारण पापका ही बंध होगा। इसलिए बुद्धिमान मानवको उचित है कि इस आत्मगंगामें नित्य स्नान करके पवित्र हो ।
तत्त्वज्ञानका स्नान सच्चा स्नान है
रागादिवर्जितं स्नानं ये कुर्वन्ति दयापराः ।
तेषां निर्मलता योगे न च स्नातस्य वारिणा ॥३१३॥ अन्वयार्थ-(ये दयापराः) जो दयावान पुरुष (रागादिवर्जितं स्नानं कुर्वन्ति) रागद्वेषादिसे रहित आत्माके स्वरूपमें रमण करते हुए उसीमें डुबकी लगाते हैं (तेषां निर्मलता योगे) उनकी शुद्धि योगाभ्यासमें हो जाती है । (न च स्नातस्य वारिणा) किंतु जलमें स्नान करनेवालेकी शुद्धि जलसे नहीं हो सकती है।
भावार्थ-आत्माको कर्मोंसे छुडानेका उपाय या रागादि मलसे छुड़ानेका उपाय, वीतराग विज्ञानमय आत्माके भीतर स्नान करना है। जलका स्नान आत्माके भावोंको शुद्ध नहीं कर सकता है । जल-स्नानसे हिंसा होती है इससे पापका बन्ध होता है। दयावान महात्मागण जल-स्नानसे शुद्धि न मानकर आत्माके अनुभवसे शुद्धि होती है ऐसा निश्चय करके आत्मारूपी गंगामें स्नान करते हैं, यही सच्चा स्नान है ।
आत्मानं स्नापयेन्नित्यं ज्ञाननीरेण चारुणा ।
येन निर्मलतां याति जीवो जन्मान्तरेष्वपि ॥३१४॥ अन्वयार्थ-(आत्मानं नित्यं चारुणा ज्ञाननीरेण स्नापयेत्) आत्माको सदा पवित्र ज्ञानरूपी जलसे नहलाना चाहिए (येन जीवः जन्मान्तरेषु अपि निर्मलतां याति) जिससे यह जीव अन्य भवमें भी कर्मरूपी मैलसे छूटकर निर्मल हो जाता है ।
भावार्थ-तत्त्वज्ञानमें रमण करना ऐसा पवित्र स्नान है जिससे केवल इसी जन्ममें ही शुद्धि नहीं होती है, किंतु वह भवभवमें आत्मशुद्धिदाता है ।
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