Book Title: Sara Samucchaya
Author(s): Kulbhadracharya, Shitalprasad
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 160
________________ १४३ सच्चा धन क्या है ? करना चाहिए । परन्तु जो कोई शास्त्रोंको पढकर संवेग-भाव प्राप्त न करे और उस ज्ञानसे धन कमाकर धनवान होना चाहे, परिग्रहके ममत्वमें फँसना चाहे, वह उस विद्यासे मोही बनकर दुर्गतिका पात्र बनेगा । वह ऐसा ही मूर्ख है जैसा वह मूर्ख कि जो अमृत पीकर विष पीना चाहे । जिनवाणीका स्वाद अमृतरूप है सो अमर अजर मोक्षका कारण है । जिससे अविनाशी मोक्ष मिल सकता है उससे संसारके तुच्छ विषय भोग करके सुख मान लेना विषग्रहणके समान है। सच्चा धन क्या है? श्रुतं वृत्तं शमो येषां धनं परमदुर्लभम् । ते नराः धनिनः प्रोक्ताः शेषा निर्धनिनः सदा ॥३०९॥ अन्वयार्थ-(येषां परमदुर्लभं धनं श्रुतं वृत्तं शमः) जिनके पास बड़ी कठिनतासे प्राप्त करने योग्य धन-शास्त्रज्ञान, चारित्र व शमभाव हैं (ते नराः धनिनः प्रोक्ताः) वे ही मानव धनवान कहे गये हैं, (शेषाः सदा निर्धनिनः) बाकी मानव धनवान होकर भी निर्धनी हैं। भावार्थ-जिससे सच्चा सुख व संतोष मिले वही धन है। मानवोंको सच्चा सुख देनेवाले तीन पदार्थ हैं-शास्त्रोंका यथार्थ ज्ञान, मुनि या श्रावकका चारित्र-पालन तथा सम्यग्दर्शनसे प्राप्त होनेवाला समभाव या शांतभाव । जिनको ये तीन महान गुण मिल गये वे ही सच्चे धनी हैं। इनका प्राप्त करना बड़ा कठिन है। इन्हींको प्राप्त करना चाहिए । जो शास्त्रज्ञानरहित, चारित्र- रहित, और सम्यग्दर्शनरहित हैं वे धनवान होकर भी निर्धनी हैं। उनको सच्ची सुखशांति कभी भी प्राप्त न होगी। वे इस जीवन में भी दुःखी होंगे और आगामी कालमें भी दुःखी होंगे। लौकिक भोग तृप्तिकारी नहीं को वा तृप्ति समायातो भोगैर्दुरितबन्धनैः । देवो वा देवराजो वा चक्रांको वा नराधिपः ॥३१०॥ अन्वयार्थ-(दुरितबन्धनैः भोगैः) पापको बाँधनेवाले भोगोंसे (को वा तृप्ति समायातः)कौन ऐसा है जिसको तृप्ति हो सकती हो ? (देवः वा देवराजः वा चक्रांकः वा नराधिपः) चाहे वह देव हो या इन्द्र हो या चक्रवर्ती हो या राजा हो । भावार्थ-इन्द्रियोंके भोगोंको भोगनेसे किसीको भी तृप्ति नहीं होती। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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