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दुःखमें शोच वृथा है
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अन्वयार्थ - (संगात्) परिग्रहकी मूर्छासे (उत्तमम् ) उत्तम व (मोक्षसाधनं सौख्यं न जायते) मोक्षका साधनभूत सुख नहीं प्राप्त होता है ( च संगात् संसारस्य निबन्धनं दुःखं जायते) किंतु परिग्रहकी मूर्छासे संसारका कारण दुःख ही प्राप्त होता है।
भावार्थ- परिग्रहका ममत्व त्याग देनेसे, विषयोंकी चाह मिटा देनेसे और मोक्षसे प्रेम करनेसे वीतरागभावसहित आत्मामें रमण होता है तब उत्तम अतीन्द्रिय सुख भी मिलता है तथा कर्मोंका क्षय भी होता है, संसार कटता है । परन्तु परिग्रहके ममत्वसे ऐसा अपूर्व सुख नहीं प्राप्त हो सकता है, इतना ही नहीं, पापोंका बंध होता है जिससे संसार भी बढ़ता है और दुःखों को भी सहना पड़ता है ।
दुःखमें शोच वृथा है
पूर्वकर्मविपाकेन बाधायां यच्च शोचनम् ।
तदिदं तु स्वदंष्ट्रस्य जरच्चेडाहिताडनम् ॥ ३०५ ॥
अन्वयार्थ - ( पूर्वकर्मविपाकेन बाधायां यत् च शोचनम् ) पूर्व कर्मोंके उदयसे प्रतिकूलता उत्पन्न होनेपर शोच करना ( तत इदं तु) सो ऐसा ही है जैसे कोई (स्वदंष्ट्रस्य) स्वयं अपने आपको काट ले और (जरत् चेडाहिताडनम् ) वृद्ध नौकरको प्रताडित करे ।
भावार्थ- कोई असमर्थ पुरुष शारीरिक पीडासे घबड़ाकर स्वयं ही अपनेको काट ले और वृद्ध नौकरको क्रोधसे प्रताडित करे - फिटकार लगावे तो यह उसकी मूर्खता ही है । उसने ही स्वयंको काटा है उसका कष्ट उसको ही भोगना पड़ेगा । इसी प्रकार जो तीव्र कर्म इस जीवने स्वयं बाँधा है उसके उदय आनेपर शोच करना या घबड़ाना वृथा है, मूर्खता ही है । क्योंकि वह अपने ही दोषका फल है । अतः बुद्धिमानोंको उचित है कि प्राप्त हुए दुःखको समतासे भोग लेवे ।
' अज्ञे हि बाधते दुःखं मानसं न विचक्षणे । पवनैर्नीयते तूलं मेरोः शृंगं न जातुचित् ॥ ३०६॥
अन्वयार्थ - ( मानसं दुःखं ) मानसिक दुःख (विचक्षणे न हि अज्ञे बाधते) बुद्धिमान पण्डितको कष्ट नहीं पैदा करता है किन्तु अन्य मूर्खको ही सताता है (पवनैः तूले नीयते मेरोः शृंगं जातुचित् न) पवनके वेगोंसे रुई उड़ जाती है किन्तु सुमेरु पर्वतका शिखर कभी नहीं उड़ता है ।
पाठान्तर - १. अन्यो ।
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